“धुँधली सी परछाई में”
गीत-ग़ज़ल, दोहा-चौपाई, सिसक रहे अमराई में
भाईचारा तोड़ रहा दम, रिश्तों की अँगनाई में
फटा हुआ दामन अब तक भी सिलना नहीं हमें आया
सारा जीवन निकल गया है, कपड़ों की कतराई में
रत्नाकर में अब भी होता, खारे पानी का मन्थन
उथल-पुथल सी मची हुई है, सागर की गहराई में
केशर की क्यारी को किसने, वीराना कर डाला है
महाबली बलिदान हो गये, बारूदों की खाई में
मन के दर्पण में लोगों ने, चित्र-चरित्र नहीं देखा
‘रूप’ सलोना देख रहे सब, धुँधली सी परछाई में
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)