कविता – समय से मुठभेड़
तुम चाहते हो कि हरेक आंगन तक
गुनगुनी धूप पहुंचे ताकि
कोई ठिठुरती सर्दी में न कंपकंपाये
तुम चाहते हो कि हरेक दर्पण बिना धूल के हो
ताकि पारदर्शिता में कोई बाधा न आये
तुम चाहते हो कि हरेक शाख पे मौसम बराबर
बना रहे ताकिवसंत में भी कोई शाख पतझड़ में डूब
मातम न मनाये
तुम चाहते हो कि हरेक नदी में पानी अठखेलियाँ
करता रहे ताकि मछलियाँ कभी बेमौत न मरें
तुम चाहते हो कि हरेक बाजार में जिन्दगी का सामान बिके
ताकि हरेक घर में होली दीवाली रहे
तुम चाहते हो कि सारे पेड़ फलों फूलों से लदे रहें
ताकि यह उपवन सदा महका महका रहे
तुम चाहते हो कि हरेक बदल बरस बरस कर मुड़े
ताकि कोई पपीहा प्यासा न रहे
तुम चाहते हो कि हरेक दीवार पे चस्पा इश्तिहार
रौशनी से सराबोर हो ताकि कहीं भी
अंधेरों का साम्राज्य न पनप पाए
परन्तु मेरे प्रिय कवि
तुम्हारे चाहने भर से शायद कुछ न हो पायेगा
क्योंकि बहुत से गिद्ध रक्त मांस की पिपासा लिए
तुम्हारी चाहतों के खिलाफ इक्कठे हो गये हैं
तुम अकेले किस किस से भिड़ोगे
यह सोचकर कभी हार मत जाना युद्ध से भाग मत जाना
तुम्हारे पास हथियार है कलम
उठाओ कलम और मुठभेड़ करो समय से
आखिरी सांस तक लड़ो गिद्धों से जीत हार तो बाद की बात है
संभव है तुम्हारी चाहतें एक दिन पूरी हो जाएं
— अशोक दर्द