आर्तनाद
आर्तनाद वो धरा का पिघलता हो यूँ शबाब
बिखर गई वो शमा यूँ अंधेरा हो लाजवाब ।
चट्टानों की वो खामोशियाँ सुन रहा है जहाँ ,
द्वन्द के बीच में शान्त चमक रहा आफताब
कविता की भाव भंगिमा मस्त है वो गुलाब
त्रस्त काँटो से समेट रहा फिर भी बिखराव।
घुंघरुओं की छनछनाहट आंसुओं का दबाब
ताश के महल हैं गिन रहा साँसों का जुड़ाव
बनाबटी है चेहरे यहाँ हँसी का हुआ अभाव
तनाव ही तनाव है फना हुआ आज प्रेमभाव
रेत के ढेर पर बन गए इंसान के पदचाप भी
मनु स्मृतियों में खो गया श्रद्धा का सदभाव।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़