धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर ने हमें क्या-क्या दिया है?

ओ३म्

ईश्वर है या नहीं? यदि है तो उसने हमें क्या-क्या दिया है? यह प्रश्न पर स्वाभाविक रूप से मनुष्य के मन में विचार आ सकते हैं। प्रथम प्रश्न पर विचार करें तो हमें अपनी व अन्य मनुष्य की शक्तियों पर विचार करना पड़ता है। मैं मनुष्य हूं परन्तु मेरी शक्तियां सीमित हैं। मैं हर काम नहीं कर सकता। अनेक काम मुझे दूसरों की सहायता से कराने पड़ते हैं या मिलकर करने होते हैं। मैं घर में जल का प्रयोग करता है। हमारे घर में जल का कनेक्शन है। किसी स्थान से सरकारी विभाग के लोगों द्वारा पानी एकत्र कर उसे स्वच्छ किया जाता है और उसे पम्प करके नगर आदि में भेजा जाता है। यदि यह व्यवस्था न हो तो मेरा जीवन कठिनाईयों व संघर्ष में पड़ जाता है। हम जो भी कार्य करते हैं उसमें हमें अन्य लोगों की सहायता लेनी ही पड़ती है। हम अपनी आंखों से सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवी के भिन्न-भिन्न स्थानों व पदार्थों को देखते हैं। यह सब कुछ किसी मनुष्य व मनुष्य समूह ने नहीं बनायें हैं। कोई भी मनुष्य एकाकी व संगठित रूप से भी इन दृष्यमान लोक-लोकान्तरों व पदार्थों निर्माण नहीं कर सकता। इस उदाहरण से मनुष्य से भिन्न एक अदृश्य सत्ता के अस्तित्व का ज्ञान होता है। सूर्य किसने बनाया? इसका उत्तर है कि यह मनुष्य व मनुष्यों के समूह ने नहीं बनाया। यह एक दृश्य सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक सत्ता की कृति वा रचना है। यही उत्तर चन्द्र, पृथिवी, समुद्र, पर्वत, वन, वनस्पतियों, मनुष्य व अन्य प्राणियों सहित अग्नि, वायु, जल, आकाश, शब्द आदि पर भी लागू होते हैं अर्थात यह सभी पदार्थ मनुष्य द्वारा नहीं अपितु मनुष्य से इतर किसी अन्य सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, अनादि, अनन्त, नित्य, चेतन सत्ता के द्वारा बनाये गये हैं। उसी सत्ता को ईश्वर कहते हैं। संसार का होना और इसका व्यवस्थित रूप से काम करना इसके निर्माता ईश्वर का ज्ञान करा रहा है। ईश्वर का होना सत्य, सिद्ध एवं प्रत्यक्ष है। सिद्धान्त है कि रचना विशेष को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। विज्ञान व नास्तिकों के पास भी इस सृष्टि रचना के रचयिता वा सृष्टिकर्ता का यथार्थ व सत्य ज्ञान नहीं है। वेद, योग-वेदान्त दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के अध्ययन से ईश्वर का निर्भ्रान्त ज्ञान होता है। अतः बुद्धि व तर्क के आधार पर ईश्वर का होना, उसे मानना, आदर व सम्मान देना मनुष्यों व विद्वानों का कर्तव्य निश्चित होता है।

ईश्वर का अस्तित्व है, यह जान लेने के बाद हम संक्षेप में यह विचार करते हैं कि हमें ईश्वर से क्या-क्या मिला है। हम मनुष्य अपने बारे में बहुत सी बाते जानते हैं और बहुत सी बातें नहीं जानते। हम दूसरों को देखकर अपने बारे में अनुमान करते हैं कि वर्षों पूर्व अन्य मनुष्यों की सन्तानों के समान अपने माता-पिता के द्वारा हमारा जन्म हुआ था। हम शिशु रूप में इस संसार में आये थे। जन्म से पूर्व 9-10 माह तक हम माता के गर्भ में थे। उस गर्भ के आरम्भ काल से पूर्व हम कहां थे?, हममे से शायद कोई नहीं जानता। हम इस प्रश्न पर कभी विचार ही नहीं करते परन्तु दार्शनिक मनिषी व विद्वान ऐसे प्रश्नों पर भी विचार करते हैं व उनका उत्तर खोजते हैं। इस प्रश्न पर विचार करने पर एक तथ्य हमारे सम्मुख आता है कि हमारा अस्तित्व व सत्ता स्वयं सिद्ध है। मनुष्य आदि का बच्चा पूर्व जन्म के अनेक संस्कारों के साथ जन्म लेता है। दो सगे भाई बहिनों के गुण, कर्म, स्वभाव, योग्यता, आकृति-प्रकृति व क्षमतायें एक समान नहीं होती। इससे उसका पूर्व जन्म सिद्ध होता है। मृत्यु के समय भी शरीर से आत्मा वा चेतना तथा सूक्ष्म ज्ञान व कर्म इन्द्रियों सहित प्राण, मन, बुद्धि आदि अत्यन्त सूक्ष्म तत्वों से बना एक अदृश्य शरीर, हमारे भौतिक शरीर को छोड़कर चला जाता है। शरीर से उसके निकलने का नाम ही मृत्यु होता है। अतः जन्म से पूर्व व मृत्यु के बाद भी हमारी अर्थात् हमारी आत्मा, जो कि वस्तुतः हम हैं, की सत्ता विद्यमान रहती है। संसार में मनुष्यों व इतर प्राणियों के जन्म व मृत्यु के चक्र को देखकर यह अनुमान होता है कि संसार में आत्मा के जन्म व मरण का चक्र अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा क्योंकि मनुष्य का जन्म किसी उद्देश्य विशेष से किसी अन्य बड़ी व सर्वशक्तिमान सत्ता ईश्वर से होता है। विचार करने पर वह उद्देश्य आत्मा को मनुष्य वा अन्य योनियों में होने वाले दुःखों की निवृत्ति व आनन्द की अवस्था प्राप्त करने के लिए होता है। यह आनन्द की अवस्था मोक्ष अवस्था कहलाती है। यह ज्ञान व सद्कर्मों को करने पर प्राप्त होती है। सद्कर्मों का ज्ञान कहा से प्राप्त होता है? इसका उत्तर यह है कि वह ज्ञान परमात्मा से प्राप्त होता है। परमात्मा ने वह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों के रूप में दिया है। हमें संस्कृत का अध्ययन कर वा वेदों के हिन्दी, अंग्रेजी व अन्य भाषाओं के भाष्यों सहित प्राचीन ऋषियों के ग्रन्थों के अध्ययन से सत्य व यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। वेद विरुद्ध कर्म निन्दनीय एवं त्याग देने योग्य होते हैं। वेद विहित कर्मों को करने से मनुष्य उनके फल के रूप में दुःखों के स्थान पर सुखों को प्राप्त करता है। मनुष्य यदि अपने सभी पूर्व दुष्ट व पाप कर्मों को भोग ले, जीवन में बुरे व पाप कर्म न करें, वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लें और ईश्वरोपासना व यज्ञ आदि कर्मों को करते हुए समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार कर ले तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इससे वह जन्म व मरण के चक्र से छूट कर आनन्दमय ईश्वर में उसके 100 वर्ष की अवधि जो 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्ष के बराबर होती है, दुःखों से छूट कर मोक्ष सुख का भोग करता है।

ईश्वर को महादेव कहा जाता है। महादेव का अर्थ है कि ईश्वर हमें अग्नि, वायु, जल आदि देवों से जो पदार्थ, जीवन व सुख प्राप्त होते हैं उनसे भी कहीं अधिक सुख देता है। जब हम विचार करते हैं कि हमारा यह शरीर हमें किसने दिया, तो इसका विवेकपूर्ण उत्तर यही मिलता है कि यह हमें ईश्वर से प्राप्त हुआ है। यह शरीर साधारण शरीर नहीं है अपितु इसमें आंख, नाक, कान आदि पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं और पांच कर्मेन्द्रियां हैं। अन्तःकरण चतुष्टय अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार है, यह सब परमात्मा ने हमारे इस मनुष्य शरीर में दिये हैं। हमारे शरीर में प्राण सबसे अधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं। यदि पांच मिनट भी इन्हें वायु न मिले तो हमारा प्राणान्त हो जाता है। यह प्राण व इसके लिए वायु परमात्मा ने ही हमारे जन्म के पहले से ही बनाकर प्रचुर मात्रा में संसार के सभी भागों में उपलब्ध करा रखी हैं। परमात्मा की ऐसी-ऐसी अनेकानेक देने हैं जो हमें परमात्मा से प्राप्त हुई हैं। हमारे माता, पिता, आचार्य, सगे-संबंधी, इष्ट-मित्र, पत्नी, बच्चे, पुत्र-वधुवें वा जामाता सहित अन्न व ओषधि आदि सभी पदार्थ भी ईश्वर ने ही हमें प्रदान किये हैं। यह ऐसे पदार्थ हैं कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई किसी को नहं दे सकता। इससे भी बढ़कर बात भाषा का ज्ञान है। नवजात शिशु को भाषा का ज्ञान माता कराती है। ईश्वर ने भी माता के समान हमें वेदों के द्वारा बोलने व संसार के सभी पदार्थों व कर्तव्यों को जानने के लिए वेदवाणी प्रदान की है। यदि परमात्मा यह न देता तो मनुष्य गूंगा होता। उसका जीवन गूंगे मनुष्य के समान होता।

हम अपने लिये मकान बनाते हैं तो उसकी समस्त सामग्री भी परमात्मा ने ही बनाकर सृष्टि में उपलब्ध कराई है। वैज्ञानिकों ने जितने भी आविष्कार किये हैं उसके लिए उन्हें बुद्धि व आवश्यक पदार्थ व उनमें कार्यरत नियम भी परमात्मा के ही बनायें हुए व उसी की देन हैं। ईश्वर ही हमें ज्ञान, सद्प्रेरणा, सुख व शान्ति देने वाला है। वह लोग धन्य हैं जो त्याग भाव से अपना जीवन व्यतीत करते हुए अधिक समय ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना में लगाते हैं। सभी मनुष्यों के प्रति सद्भाव रखना, उन्हें शिक्षित करना व उन्हें सद्प्रेरणायें करना मनुष्यों का धर्म है। हमें मानव जन्म मिला है। इसी जन्म में हम अपनी आत्मा व ईश्वर को जान सकते हैं। वेद व वैदिक साहित्य इस कार्य में हमारा सहायक है। हमें प्रयत्न व पुरुषार्थपूर्वक वेद एवं वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषिकृत ग्रन्थों का अध्ययन कर सत्य को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। वेद की शिक्षाओं के अनुसार ही हमारा आचरण भी होना चाहिये। जिस प्रकार से संसार में ज्ञान व विज्ञान बढ़ रहा है उससे स्पष्ट प्रतीत होता है आने वाला युग सत्य को जानने, सत्य को मानने व सत्याचरण करने वाला होगा। उस युग में अविद्या व मिथ्या आचरण नहीं होगा। मिथ्या मत व सम्प्रदाय तब सत्य धर्म व मत में समाविष्ट हो जायेंगे। ऐसा होने पर ही मनुष्य जीवन सफल हो सकता है व होगा।

ईश्वर है या नहीं एवं उसने हमें क्या क्या दिया है, इस प्रश्न पर हमने इस लेख में संक्षेप में विचार किया है। हम आशा करते हैं पाठक इसे पसन्द करेंगे। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य