“वो ही अधिक अमीर”
बिकते हैं बाजार में, जिनके रोज जमीर।
छल-बल से होते यहाँ, वो ही अधिक अमीर।।
फाँसी खा कर रोज ही, मरते जहाँ किसान।
बोलों किस मुँह से कहें, अपना देश महान।।
माना है प्यारी धरा, जीवन का आधार।
लेकिन पौधों से नहीं, करता कोई प्यार।।
सजते हों गुलदान में, जब कागज के फूल।
उजड़ा गुलशन हो भला, कैसे अब अनुकूल।।
जनमानस पर कर रहे, जो अगणित अहसान।
सबका भरते पेट हैं, वो श्रमवीर किसान।।
सीमाओँ पर दे रहे, जो अपना बलिदान।
रक्षा में संलग्न हैं, हरदम वीर जवान।।
अभिनन्दन-वन्दन करें, आओ मन से आज।
आज किसान-जवान से, जीवित सकल समाज।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)