ग़ज़ल
कहीं वही तो’ नहीं वो बशर दिल-ओ-दिलदार
जिसे तलाशती’ मेरी नज़र दिल-ओ-दिलदार |
हवा के’ झोंके’ ज्यों’ आते सदा सनम मेरे
नसीम शोख व महका मुखर दिल-ओ-दिलदार |
सूना उसे कई’ गोष्टी में’, फिर भी’ प्यासा मन
अज़ीज़ है वही आवाज़ हर दिल-ओ-दिलदार |
कभी हुई न समागम, कभी नहीं कुछ बात
हिजाब में सदा रहती मगर दिल-ओ–दिलदार |
गए विदेश को’ महबूब छोड़कर मुझको
ख़याल में बसे’ चारो पहर दिल-ओ-दिलदार |
कभी नहीं सके’ हम भूल, वर्ष कई बीते
शरीर मेरा’ उसी का जिगर दिल-ओ-दिलदार |
सनम मेरे है’ निराला, अनन्य दुनिया में
जवाहरों में’ अनूठा, गुहर दिल-ओ-दिलदार |
विरह के’ शोक में. डूबी है’ प्रेयसी ‘काली’
उसे नहीं पता’ कुछ, वज्द बेखबर दिलो दिलदार |
शब्दार्थ : नसीम = मृदुल हवा ; वज्द = आत्म विस्मृत
कालीपद ‘प्रसाद’