आत्मिक सुख
विभूति बाबू के रिटायरमेंट को करीब छह महीने बीत गए थे। उनके कमरे में चारों तरफ साहित्यिक किताबें रखी थीं। वह कागज़ कलम लेकर कुछ लिख रहे थे। तभी उनके चचेरे भाई उनसे मिलने आए।
“अभी तक तक कलम घिसने से जी नहीं भरा ?”
अपने भाई के प्रश्न के जवाब में विभूति बाबू बोले।
“तब तो दूसरों का हिसाब लिखते थे। पर अब अपने मन की शांति के लिए लिख रहा हूँ।”
“अब इस उम्र में लेखक बनने की क्या सूझी।”
“जब तक जीवन चले और शरीर साथ दे तब तक कर्म तो करना ही है। मन में पुरानी दबी इच्छा थी। उसे पूरा करने का अब वक्त मिला है। अपनी तरफ से कोशिश है कि कुछ अर्थपूर्ण कर सकूं।”