” —————————– गरमी लागे ढीठ ” !!
पसरी पसरी धूप है , दिन भी हुए निढाल !
कोप करे सूरज तपे , होकर लालम लाल !!
तपते दिन रातें तपे , लगे सुहानी भोर !
वन उपवन सूने हुए , नहीं नाचते मोर !!
पलती हुई बहार है , पतझड़ के भी गीत !
घट पनघट रीते हुए , गरमी लागे ढीठ !!
आग पेट गरीबन की , हुई जेठ सी आज !
कौन करे चिन्ता यहाँ , रोज बदलते ताज !!
राजनीति गरमा रही , शतरंजी है चाल !
यहां कठघरे सभी खड़े , जनता है बेहाल !!
केशों में वेणी सजे , मादक , मदिर , सुगन्ध !
और समीर के झोंके , तोड़ रहे तटबन्ध !!