लघुकथा – यादें
“पापा आपसे कुछ नहीं बनता है ! दवा भी नहीं पी पा रहे हैं ! और चम्मच में भरी सारी दवा ही फैला दी ! ऐसा कैसे चलेगा?” जवान बेटे ने बिस्तर पर लेटे, सत्तर वर्षीय रिटायर्ड बाप को डंपटते हुए कहा!
“हां बेटा दिक्कत तो है !” बुदबुदाते हुए पिता बोले!
“लगता है कि धीरे-धीरे पापा की याददाश्त जा रही है !” धीरे से बेटे ने अपनी पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए कहा!
पर यह बेटे का भ्रम था! पिता को गुज़रे वक़्त के सारे वाकया याद थे ! वे बेटे के बचपन के दिनों में पहुंच गए !बेटा अब नन्हें बालक के रूप में उनके सामने था, और तीन पहिये की साइकिल चलाने की कोशिश कर रहा था!
“पापा-पापा, मुझसे नहीं बनेगी यह साइकिल चलाते! मैं तो बार-बार गिर जाता हूँ!” बेटे ने तुतलाते हुए कहा!
“नहीं बेटा, ज़रूर बनेगी ! क्यों नहीं बनेगी ? अरे मेरा स्ट्रोंग बेटा सब कुछ कर सकता है! मेरा बेटा, न केवल एक दिन साइकिल के साथ मोटर साइकिल, कार चलाएगा, बल्कि-बल्कि-बल्कि बड़ा होकर मेरा भी सहारा बनेगा!”
यादों की परतें खुलते ही पिता की आंखें भर आईं! वे वर्तमान में वापस लौट आए, और हिम्मत जुटाकर ख़ुद का सहारा ख़ुद बनने की तैयारी करने लगे!
— प्रो. शरद नारायण खरे