ग़ज़ल – कल तक दावा था
कल तक दावा था यह घर मेरा है
सत्य यही है यह तो रैन बसेरा है
सफर रूह का जब पूरा हो जायेगा
पल भर में छूटेगा यह जो डेरा है
अगली योनि मिलेगी या फिर मोक्ष मिले
यह सब तो कर्मों ने स्वत: उकेरा है
चाक सतत चलता है पिसता हर प्राणी
आना जाना रहा नियति का फेरा है
होड़ लगी मैं क्या ले लूं कितना ले लूं
जब भी जागो समझो हुआ सवेरा है
जितना भी चाहे प्रयास कर ले मानव
यही मोह मद माया जिस ने घेरा है
जब तक मुट्ठी बंद_खुली सब बेमानी
क्या तेरा है और यहां क्या मेरा है
— मनोज श्रीवास्तव, लखनऊ