“वृद्ध पिता मजबूर”
करके सभी प्रयास अब, लोग गये हैं हार।
काशी में उलटी बहे, गंगा जी की धार।।
पूरी ताकत को लगा, चला रहे पतवार।
लेकिन फिर भी नाव तो, नहीं लग रही पार।।
एक नीड़ में रह रहे, बोल-चाल है बन्द।
भाई-भाई की उन्हें, सूरत नहीं पसन्द।।
पुत्र पिता को समझता, बैरी नम्बर एक।
मतलब तक ही हैं यहाँ, सब परिवारी नेक।।
खून पिलाकर पालता, जीवनभर है बाप।
लेकिन बदले में उसे, मिलता है सन्ताप।।
यौवन के अभिमान में, बहुएँ-बेटे चूर।
माता की चलती नहीं, वृद्ध पिता मजबूर।।
अवसर कभी न चूकते, करते को अपमान।
मात-पिता का चुकाते, वो ऐसे अहसान।।
जिनके लिए कृपण बने, किया महल तैयार।
अपशब्दों की वो करें, रोज-रोज बौछार।।
कहीं किसी भी हाट में, बिकती नहीं तमीज।
वैसा ही पौधा उगे, जैसा बोते बीज।।
पूर्व जन्म में किसी का, खाया था जो कर्ज।
उसको सूद समेत अब, लौटाना है फर्ज।।
जो रखता मन में नही, किसी तरह का मैल।
वो खटता है रात-दिन, ज्यों कोल्हू का बैल।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)