मुक्तक/दोहा

“वृद्ध पिता मजबूर”

करके सभी प्रयास अब, लोग गये हैं हार।
काशी में उलटी बहे, गंगा जी की धार।।

पूरी ताकत को लगा, चला रहे पतवार।
लेकिन फिर भी नाव तो, नहीं लग रही पार।।

एक नीड़ में रह रहे, बोल-चाल है बन्द।
भाई-भाई की उन्हें, सूरत नहीं पसन्द।।

पुत्र पिता को समझता, बैरी नम्बर एक।
मतलब तक ही हैं यहाँ, सब परिवारी नेक।।

खून पिलाकर पालता, जीवनभर है बाप।
लेकिन बदले में उसे, मिलता है सन्ताप।।

यौवन के अभिमान में, बहुएँ-बेटे चूर।
माता की चलती नहीं, वृद्ध पिता मजबूर।।

अवसर कभी न चूकते, करते को अपमान।
मात-पिता का चुकाते, वो ऐसे अहसान।।

जिनके लिए कृपण बने, किया महल तैयार।
अपशब्दों की वो करें, रोज-रोज बौछार।।

कहीं किसी भी हाट में, बिकती नहीं तमीज।
वैसा ही पौधा उगे, जैसा बोते बीज।।

पूर्व जन्म में किसी का, खाया था जो कर्ज।
उसको सूद समेत अब, लौटाना है फर्ज।।

जो रखता मन में नही, किसी तरह का मैल।
वो खटता है रात-दिन, ज्यों कोल्हू का बैल।।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है