ग़ज़ल
चारों और अंधेरा देखा
दूर बहुत सवेरा देखा!
मज़बूरों का फुटपाथों पे,
मैने रेन- बसेरा देखा!
बिखरे सब परिवार मिले,
तेरा देखा, मेरा देखा!
ससंद के गलियारों में,
मक्कारों का डेरा देखा!
ऐरे-गेरे जितने भी मिले,
सबने ही ऐरा-गेरा देखा,
नागों में कहां ज़हर बचा,
ज़हर भरा सपेरा देखा!
छोटे से जीवन में ‘जय’,
चौरासी का फेरा देखा!
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’