प. बंगाल में भाजपा के विस्तार का निहितार्थ
पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और विपक्षी कांग्रेस व वामपंथी पार्टियां एक ही धरातल पर है। इन सबका एजेंडा एक है। इनकी धर्मनिरपेक्षता एक जैसी है। भाजपा को रोकने की इनकी मानसिकता भी समान है। इनके द्वारा बनाई गई यही जमीन भाजपा के लिए अनुकूल साबित हो रही है। मतलब अनेक दलों का नकारात्मक आधार पर एक मंच पर आ जाना सफलता की गारंटी नहीं होती है। प.बंगाल के पंचायत चुनाव ने राजनीतिक तस्वीर बदल दी है। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां मुख्य मुकाबले से बाहर हो गई है। इनकी जगह भाजपा ने ले ली है। गांवों तक उसका विस्तार हो चुका है। इसका निहितार्थ महत्वपूर्ण है। भाजपा का प. बंगाल में खास अस्तित्व नहीं था। यह माना जाता था कि यहां उसके लिए अनुकूल स्थिति नहीं है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस ओर ध्यान दिया । उन्होंने चुनौती स्वीकार की। सत्तापक्ष ने हिंसा का सहारा लेकर भाजपा कार्यकर्ताओं को हतोत्साहित करने का प्रयास किया। कांग्रेस , कम्युनिस्ट विपक्ष में थे। किंतु किसी ने इसे लोकतंत्र की हत्या नहीं बताया। इसके बाद भी भाजपा पंचायत चुनाव में दूसरे नम्बर की पार्टी बन गई। कांग्रेस और वामपंथी तीसरे ,चौथे पायदान पर आ गए। इसका असर विपक्षी एकता पर भी दिखाई दिया । ममता बनर्जी का बयान आया। उन्होंने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानने से इनकार कर दिया। इसका कारण वहां पंचायत के चुनाव परिणाम थे। ममता और कांग्रेस कम्युनिस्ट का वोट बैंक एक है। ऐसे में यह तय है कि ममता इन दोनों पार्टियों को किनारे लगाने का प्रयास करेंगी। इसका विपक्षी एकता के प्रयासों पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा।
भारतीय राजनीति के हिसाब से पिछले कुछ दिन महत्वपूर्ण थे। एक तो नए सिरे से विपक्षी एकता की बात शुरू हुई । कर्नाटक में चुनाव बाद बने गठजोड़ ने भाजपा को सत्ता से दूर कर दिया।दूसरा इस शोर में पश्चिम बंगाल से मिला राजनीतिक सन्देश दब गया। पहली बार यहां पंचायत चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को पीछे छोड़ दिया। अब वह पंचायत तक तृणमूल कांग्रेस के मुख्य मुक़ाबले में आ गई है। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा ने अकेले भाजपा से लड़ने का इरादा पहले ही छोड़ दिया था। यह तय है किसी एक दल में अब भाजपा से मुकाबले का मंसूबा नहीं बचा है। इसी प्रकार नेतृत्व के मुद्दे पर भी विपक्ष के दिग्गज अपने को पीछे देख रहे है। इनमें कोई भी अकेले नरेंद्र मोदी को कारगर चुनौती देने की स्थिति में फिलहाल नहीं है। राहुल गांधी अवश्य इस सीधी जंग में कूद गए थे ,लेकिन अभी तक तो उन्हें फजीहत ही उठानी पड़ी है। अंतिम तस्वीर यह है कि उनके प्रधानमंत्री बनने के दावे को भी अन्य विपक्षी पार्टियों ने हल्के में ही लिया है। अनेक विपक्षी नेताओं ने तो स्पष्ट कर दिया कि प्रधानमंत्री पद का निर्णय चुनाव बाद होगा।
अधिकांश राज्यों में कांग्रेस की स्थिति क्षेत्रीय दलों से भी कमजोर हो गई है। लोकसभा में भी उसकी संख्या किसी क्षेत्रीय दल का ही अहसास कराती है। फिर भी औपचारिक रूप से वह एक राष्ट्रीय पार्टी है। इसी माहौल में विपक्षी एकता की नए सिरे से चर्चा शुरू हुई है। कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी होने का गुमान भी थी। उसे लगता था कि प्रांतीय दल संबंधित प्रदेश तक सीमित रहते है। उस प्रदेश की सीमा के बाहर इनका कोई अस्तित्व नहीं होता। लेकिन कर्नाटक में क्षेत्रय पार्टी का जूनियर पार्टनर बनना कांग्रेस के लिए घातक साबित हो रहा है । इसके प्रतिकूल प्रभाव दिखाई भी देने लगे है। अधिकांश क्षेत्रीय दल उसका अवमूल्यन करने लगे है। पहले माना जाता था कि विपक्षी गठबन्धन में राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का ही नेतृत्त्व रहेगा। लेकिन अब सबने इस बात से हाँथ खड़े कर लिए है।
कांग्रेस अब इस हैसियत में नहीं रही। कर्नाटक प्रकरण ने उसके दावे को और भी कमजोर बनाया है। उसके नेता बहुत खुश थे कि यहां उन्होंने पहले बाजी मार ली । उनकी रणनीति कामयाब रही। जेडीएस उसके पाले में आ गई। लेकिन यह मामूली खुशी कांग्रेस के लिए घातक साबित होगी। उसने गठबन्धन राजनीति में अपना अवमूल्यन कर लिया है। अब अन्य क्षेत्रीय पार्टियां भी उससे ऐसे ही समर्पण की उम्मीद करने लगी है। यदि कांग्रेस ने इतनी जल्दीबाजी न दिखाई होती तो वह इस अपमानजनक समझौते से बच जाती। पश्चिम बंगाल से भी कांग्रेस के लिए निराशाजनक खबर है। यहां के पंचायत चुनाव परिणाम ने एक साथ तृणमूल कांग्रेस , कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों की नींद उड़ा दी है । भाजपा यहां जमीन पर ही सही मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई है। उसने गांवों में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। कुछ जगहों पर पार्टी को बड़ी सफलता भी मिली है।अनेक पंचायतों के गठन में वह महत्वपूर्ण भूमिका में है। जंगमहल के झाडग़्राम और पुरुलिया जिले में भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस को कड़ी चुनौती पेश की है। दक्षिण बंगाल के ही नदिया जिले में भाजपा ने अपनी सीटों की संख्या बहुत बढोत्तरी की है। उत्तर बंगाल के अलीपुुरदुआर और जलपाईगुड़ी में पार्टी का प्रदर्शन तृणमूल की चिन्ता बढाने वाला है। कभी कांग्रेस का गढ़ माने जाने वाले मुर्शिदाबाद और मालदह जिले में भी भाजपा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है। भाजपा प्रत्येक जिले में पंचायत स्तर पर चुनाव जीत कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रही है।
कांग्रेस भाजपा को एक पल भी केंद्र की सत्ता में देखना नहीं चाहती। आम चुनाव में विपक्ष को भाजपा के खिलाफ एकजुट कर उसका उसका नेतृत्व करना चाहती है। कर्नाटक में जेडीएस को साथ लेकर वह गदगद थी। लेकिन देश के दूसरे राज्यों मे क्षेत्रीय दलों को साथ लाना आसान नहीं है।
कांग्रेस के सामने एक साथ अनेक परेशानियां आ गई है। एक तो किसी पार्टी ने राहुल के प्रधानमंत्री बनने के दावे को गंभीरता से नहीं लिया। दूसरा यह कि चुनाव पूर्व राष्ट्रीय स्तर पर भी कोई पार्टी राहुल को नेतृत्व देने को तैयार नहीं है। तीसरा यह कि जहां कांग्रेस कमजोर है , वहां उसे उचित महत्व नहीं मिल रहा है। उत्तर प्रदेश में यह देखा जा सकता है। इसके विपरीत जहाँ कांग्रेस की स्थिति भाजपा के सीधे मुकाबले में है , वहां अब क्षेत्रीय पार्टियां उससे ज्यादा सीटों की मांग करेंगी। यह स्वार्थ पर आधारित गठबन्धन होगा।
— डॉ दिलीप अग्निहोत्री