लेख– सारा विपक्ष एक सुर बोलने लगें, मतलब राजा ईमानदार है!
देश एक व्यापक बदलाव के दौर से गुज़र रहा। इससे तनिक भी इंकार नहीं किया जा सकता। बशर्तें नीतियों के क्रियान्वयन में लेट-लतीफी कभी-कभी वर्तमान सरकार की नीतियों पर सवाल ख़ड़े कर देती है। पर अगर नीतियों के क्रियान्वयन में देरी की वजह से सरकारी मंशा पर ही सवाल ख़ड़े किए जाने लगें , तो उसे कतई उचित करार नहीं दिया जा सकता। पिछले चार वर्षों में मोदी सरकार ने देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को बदलने के लिए कुछ कठोर निर्णय लिए हैं। जिसकी तारीफ़ होना लाजिमी है। बड़े बड़े दावे तो मोदी सरकार के कामों की नहीं की जा सकती। फ़िर भी रहनुमाई तंत्र में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना दिखाई पड़ी, जो पिछली सरकारों के एजेंडे से छूमंतर हो गई थी। मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह कही जा सकती है, कि पिछले चार वर्षों में सत्ता का केंद्र उस छूत से बचा हुआ है। जिसका आदी या यूं कहें सत्ता का मतलब ही भ्रष्टाचार का पर्याय भूतपूर्व सरकारों के दरमियान बनता जा रहा था।
अब हम मोदी सरकार की उपलब्धियों पर संक्षिप्त निगहबानी करें। तो हमें देखने को मिलेगा, कि भाजपानीत सरकार ने पिछले चार वर्षों के दरमियान सामाजिक विकास का एक ऐसा साँचा खींचने की पुरजोर कोशिश की है। जो आने वाले वक्त में देश की सीरत और सूरत दोनों बदल सकती है। देश में दलाली प्रथा पर शिकंजा कसने का काम हो। स्टार्टअप से लेकर कौशल विकास योजना को मूर्त रूप देने की पहल हो। टैक्स रिटर्न भरने वालों की संख्या दुगनी हुई, तो वह भी मोदी सरकार की कामयाबी ही मानी जाएगी। इसके अलावा नीम कोटेड यूरिया, सॉयल हैल्थ कार्ड और किसानों की दशा सुधारने की बात हो। यह सरकार का मजबूत पक्ष रहा है। इसके अलावा उज्जवला योजना, जनधन योजना, हर गांव बिजली आदि सरकार के जन सरोकार से ज़ुड़े होने की बानगी पेश करते हैं। पर अगर हम पिछले चार वर्ष के दरमियान की उपलब्धि सरकार की गिनाने का प्रयास कर रहें हैं। तो सिक्के के दूसरे पहलू पर भी प्रकाश डालना बेहद आवश्यक हो जाता है। आज जनता में असंतोष का बीज अगर मोदी सरकार के प्रति पनपनी शुरू हो गई है। तो उसका सबसे बड़ा कारण यह है, कि जिस निरंकुश और भ्रष्टाचारी व्यवस्था के कोढ़ से देश कराह उठा था, उससे निजात दिलाने वाली एकमात्र आशा औऱ जनसरोकार को अपना लक्ष्य बनाने वाली पार्टी चार वर्ष पूर्व सिर्फ़ भाजपा ही नज़र आ रही थी। पर भाजपा को जिस आत्मविश्वास और भरोसे के साथ सत्ता की कुंजी जनता ने दी थी। उसपर अब चार वर्ष बाद पानी फिरता हुआ कुछ पैमाने पर जरूर दिख रहा है।
फ़िर वह बात युवाओं के रोजगार की हो, महंगाई पर लगाम की हो। या सुरक्षित कारोबार के लिए माहौल देने की बात हो। इसके अलावा चाहें बात महिलाओं की सुरक्षा को लेकर हो। इन सब मुद्दें को पहली पंक्ति में ऱखकर 2014 का आम चुनाव जीता गया था। पर दुर्भाग्य देखिए इन सभी मुद्दों पर सरकार चार साल में अढाई क़दम भी आगे बढ़ती हुई मालूमात नहीं हुई। आज के दौर में अगर करोडों रुपए का विज्ञापन जारी करके विकास को परिभाषित किया जा रहा। तो यह कतई उचित नही ठहराया जा सकता है। सबका साथ-सबका विकास की बात करने वाली पार्टी का नक़ाब धारण करने वाले दल का चरित्र अब खुलकर सामने आ रहा है। ऐसा इसलिए कहा क्योंकि किसी न किसी कारणवश सभी वर्गों के साथ वर्तमान रहनुमाई व्यवस्था इंसाफ़ नहीं कर पा रही है। दलित उत्पीड़न की घटनाएं समाज में बढ़ रही है। राजस्थान जैसे राज्य में अगर दलित समाज बारात निकालने में भी अपने को महफूज़ नहीं पाता। फ़िर ऐसे में हम कैसी परिभाषा लोकतंत्र के साए में गढ़ रहें हैं। यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है। जिसके बारे में सत्तारूढ़ दल को भी सोचना चाहिए।
ऐसे में विपक्ष को सरकारी विफलता की बानगी की पूंछ पकड़कर अपना रास्ता 2019 के लिए आसान बनाना चाहिए। पर विडंबना देखिए। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को विपक्षी पार्टी के क्या गुण-धर्म होने चाहिए। शायद उसे पता नहीं। तभी तो जिस दौर में कांग्रेस जैसे वट वृक्ष को जनहितार्थ के मुद्दों की राजनीति करनी चाहिए। उस दौर में वह सहारे की बैसाखी ढूढ़ने निकल पड़ा है। जो निकट भविष्य में उसके वजूद पर ही सवालिया निशान खड़ा करने की कोशिश करेगा। जिसकी बानगी कभी-कभार परिलक्षित हो ही जाती है। जब ममता बनर्जी जैसे अगर प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लग जाएं तो। ऐसे में अगर हम यह कह दे, कि विपक्ष की एकता सिर्फ़ अवसरवाद का गठबंधन ही होगा आने वाले निकट भविष्य में तो उसमें अतिशयोक्ति तनिक भी नहीं होगा। जो न तो समाज के हित में होगा, न ही सामाजिक और राजनीतिक विकास की दृष्टि से हितकारी साबित हो सकता है। अगर देश में तेज़ी से रुख़ विपक्षी एकता की तरफ़ झुकता दिख रहा है। तो उस झुकाव का एकमात्र ध्येय अपना-अपना वजूद और ढहती राजनीतिक हैसियत सहेजने की कोशिश मात्र है। यहां पर एक बात का ज़िक्र होना बेहद जरूरी हो जाता है, कि क्यों सभी विपक्षी दल एक सुर बोलने को विवश हैं। तो उसका सबसे बड़ा कारण यह है, कि आज के दौर में अगर भाजपा का चुनावी प्रबंधन सबसे मजबूत है, तो उसने राज्य-स्तरीय और बूथ स्तर पर लंबी कार्यकर्ताओं की फ़ौज खड़ी कर ली है। जिसका तोड़ वर्तमान में न तो विपक्षी राष्ट्रीय दलो के पास है, और न ही क्षेत्रीय क्षत्रपों के पास। अंततः सिर्फ़ इतना ही कि कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा था, कि जब सारा विपक्ष एकजुट हो जाए, तो यही समझना चाहिए देश का राजा ईमानदार है। ऐसे में मोदी सरकार को विपक्षी अवसरवाद से भयभीत न होकर सिर्फ़ अपनी योजनाओं को आखिरी साल में अंजाम तक ले जाने की तरफ़ ध्यान देने की आवश्यकता है।