ग़ज़ल : रिश्ते कमाल के
देखे हैं आजकल के ये रिश्ते कमाल के
भौजाई बड़ी खुश है ननद को निकाल के
ससुराल गजब की मिली बौरा गए हैं वो
पछता रहे हैं ,बूढ़े पिता -मां को पाल के
जिसने बनाया घर किए पैदा सपूत भी
वह रह रहे हैं शान से खींसें निकाल के
आराम इनको है यहां नाली बहुत करीब
खांसे ,खखारें, थूक दें बलगम संभाल के
बूढ़े तो बच्चे हो गए और पूत सब जवान
कोसेंगे खुद को ही स्वयं किस्से हैं जाल के
हर बात सच कहेंगे हम फितरत यही रही
चर्चे बहुत हुए हैं हर इक कदम ताल के
उसने लिखा नसीब मगर कर्म पर निर्भर
हम पक चुके हैं आम सभी टूटी डाल के
— मनोज श्रीवास्तव