लो बेच दिया जमीर
बाजार मे खुद ही अपना ईमान बेचकर।
कल रात नींद ना आयी अपना अभिमान बेचकर ।।
बस अब मेले में नजर मैं ना आऊंगा ।
जो मैं था वो ना बचेगा तो खुद से नजरे कैसे मिलाऊँगा ।।
अपने लिए अब मक्कारियों का नकाब बनाऊंगा।
मर गया जो मैं,अब उस पर लगाऊंगा।।
फरेब जो अंतरात्मा से अगर मैं कर पाऊंगा ।
लगता है तभी अब जिंदा रह पाऊंगा ।।
लगता है बस अब पेट भर जाएगा ।
क्योंकि अब बस अपना जमीर बेच खाऊंगा ।।
बस अब जिंदगी मजे से कट जाएगी ।
ईमान बचे ना बचे जिंदगी बच जाएगी ।।
मैं भी अब चोरों की जमात मे जुड़ जाऊंगा ।
डाका मारने का हुनर अपने अंदर लाऊंगा ।।
झूठी शक्ल बनाकर जीना आ ही जायेगा ।
अय्यारों की बस्ती मे,अय्यार बन ही जाऊंगा ।।
गिरगिट सा हुनर खुद मे लाऊंगा।
सामने वाले के हिसाब से रंग बदल जाऊंगा।।
— नीरज त्यागी