जाने किधर गए
चुपके से आके वो कहीं मुझमें ठहर गए
ना वो किसी अजीज के न अपने ही घर गए
ठहरे है ऐसे मोड़ पे जहाँ मंजिल के न निशां
मिल जाते काफिले मुसाफिर सारे गुज़र गए
अब ढूढते है शाम-ओ-शहर जलते हुए दिए
जल कर के खाक बन के उड़े जाने किधर गए
संभला नहीं उनसे जो दिल हमको दे दिया
मेरा क्या रख सकेंगे वो जो खुद ही बिखर गए
होते नहीं है इश्क में सज़दे तमाम के
पत्थर की बुत को तोड़ कर मंदिर में रख गए
खुशबू थी उनके इश्क में जो मै महक गई
खिल जाते है चमन “निराली” कहकर जिधर गए
— नीरू श्रीवास्तव निराली