गज़ल
रूक जाते कदम तेरे जो तू पलटकर देखता
अश्क के इक कतरे में पूरा समंदर देखता
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रफ्ता-रफ्ता जिस्म से जां कैसे होती है जुदा
दिल दहल जाता तेरा जो तू ये मंज़र देखता
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झाँकता रहता है जैसे गैर के गिरेबान में
काश ये इंसान यूँ अपने भी अंदर देखता
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चेहरों की झूठी मुस्कुराहट से तू धोखा खा गया
जो छुपे थे आस्तीनों में वो खंजर देखता
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सूरत के कद्रदान ही लिक्खे था सब तकदीर में
ये तमन्ना ही रही कोई दिल का गौहर देखता
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।