लौट आओ प्रमिला
प्रमिला, तुम्हें लौटना होगा. एक बार लौट आओ. 1960 के मार्च में हम आखिरी बार मिले थे. मुझे याद है कि हम बोर्ड के परीक्षा हॉल में तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे थे. पर्यवेक्षक को भी तुम्हारी खाली सीट परेशान कर रही थी. वे हाजिरी शीट नहीं भिजवा पा रहे थे. तुम नहीं आईं. आखिर बार-बार तकाजा आने पर उन्होंने कार्यालय में हाजिरी शीट भिजवा दी. हमारी रही-सही उम्मीद भी जाती रही. कुछ देर मन-ही-मन मैं तुम्हें पुकारती रही, फिर परीक्षा में ध्यान लगाया. आखिरी पेपर था, पर हम सब पेपर कैसा हुआ के बजाय बाहर निकलकर एक दूसरे से तुम्हारे बारे में ही पूछते रहे. स्कूल बस मिस होने के डर से अधिक देर रुक भी नहीं सकते थे.
अब तुम्हारे अभिभावकों की प्रतीक्षा की बारी थी. तुम्हारे घर न लौटने पर वे तुम्हारी एक-एक सहपाठिनी के घर गए, तुम न मिलीं. वहां कैसे मिलतीं? सुबह सब तो पेपर दे रही थीं. शाम को कुंएं से तुम्हारी लाश निकली थी.
पिलानी के अनुशासन वाले गर्ल्स स्कूल के होस्टल में तुम पढ़ी थीं, मिलिटरी रूल वाले घर में तुम पली थीं, अंदर से बहुत डरी हुई, लेकिन शायद इश्क के हाथों मजबूर. एक बार तुमने कहा था- ”अगर मेरे पिताजी को हमारी ऐसी-वैसी किसी बात की भनक पड़ जाए, तो वे जिंदा नहीं छोड़ेंगे”. सचमुच तुम जिंदा बचीं भी नहीं. पर यह हुआ कैसे और क्यों, यह बताने के लिए ही लौट आओ प्रमिला.
तुम जानती हो! आजकल शिक्षित अभिभावक कुछ-कुछ बदल गए हैं. वे प्रेम विवाह, अंतर्जातीय विवाह और लिव इन शिप के लिए भी केवल इसलिए मान जाते हैं, कि हमारे बच्चे हमारी आंखों के सामने रहें, खुश रहें. एक बार लौट आओ प्रमिला, शायद तुम्हें कुछ मौका मिल जाए. देखो तो सही, 58 साल में दुनिया कितनी बदल गई है! एक बार लौट आओ प्रमिला, एक बार लौट आओ.
जानती हूं, तुम नहीं आ पाओगी, पर अभी भी मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा है.
sad old memory , alas ! she was alive today !
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. सचमुच यह बहुत ही दुःखद संस्मरण है. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.
मन के दरवाजों को खुला रखिए,
इंसानियत की तितलियों को अंदर आने दीजिए,
प्रमिलाओं को मौत के आगोश से बचा लीजिए,
उन्हें अपनी दुनिया बसाने दीजिए.