लघुकथा – ऊँची उड़ान
अम्मा ओ अम्मा हमका भी स्कूल जाना है ,हमका स्कूल काहे नाहिं भेजती | मुन्नी कमली का कन्धा जोर-जोर से हिला के बोलती जा रही थी | तोको स्कूल भेजें की तोर और तोरे भाई बहन का पेट भरें | मुन्नी की तरफ पीठ कर कमली अपने आँसू पोछती है |
चल साँझ हो गयी काम पर चल |कमली बरतन माँजती और मुन्नी साथ- साथ बर्तन धुलाती और बीच -बीच में अपनी मालकिन की बेटी को देखती जाती जो उसी की हम उम्र थी |
मुन्नी अचानक बोल पड़ती है अम्मा हमे बरतन नाहीं मांजना है तू मोसे बरतन ना मंजवा हमका भी पढना है |तू सुनती काहे नही देखो न मालकिन अपनी बिटिया को कैसे डिरेस पहिना कर स्कूल भेजती हैं |बस्ता ,कापी, डिरेस कैसन भाये है |कमली टिपियाते हुए काहे सपना देखे है रे तोरी किस्मत एही है | बदल नाही सके |
पूर्णिमा और रजत दोनो माँ बेटी की बातचीत सुन रहे थे |
अगले दिन ; अरे कमली ! मुन्नी कितने साल की है ? साहेब अगहन मा पूरे आठ बरस की हुई जायी |
तभी आद्या की वैन आजाती है बाय पापा ! बाय मम्मा !
बाय बेटा !!
मुन्नी डबडबायी आँखो से आद्या को स्कूल जाते हुए देखती |
तभी रजत मुन्नी की पीठ पर हाथ रखता है मुन्नी पलटती है ; आँसू रुकते नहीं ,रोते-रोते साहेब मोहे भी स्कूल जाना है अम्मा नाहीं भेजती है | मोको भी पढना है |मेम साहेब की तरह बनना है |
तभी पूर्णिमा आद्या की ड्रेस लाकर उसे पहनाती है और कहती है अब मुन्नी बरतन नहीं मांजेगी |
रजत और पूर्णिमा मुन्नी का स्कूल में दाखिला करा देते है |कमली बोले जा रही थी सबकी किसमत तोरे जैसी नाही रे मुनिया |
मालिक मालकिन ने तोरे सपनो को पंख दे दिये खूब पढ और भर ले ऊँची उड़ान |
— मंजूषा श्रीवास्तव
लखनऊ(यू. पी)