भक्ति
पूरी पंडिताइन है मालती। गजब की पूजा-पाठी कोई भी व्रत-त्योहार नहीं छोड़तीं। हरेली, जन्माष्टमी, महाशिवरात्रि, करवा चौथ, हरितालिका व्रत, सब निर्जला रखती हैं। आज के युग में भी वह प्याज, लहसुन तक नहीं खाती।
वह अन्नपूर्णा देवी का व्रत करती है। इस बार उद्यापन करना था। धूमधाम से तैयारियाँ चल रही थी। रोज बाजार आना-जाना लगा ही रहता था। एक अच्छा पड़ोसी होने के नाते कई बार मैं भी साथ में चला जाता था। इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन कराना, सात प्रकार की मिठाई, सात प्रकार के फल और सात सौ रूपए दक्षिणा की व्यवस्था करना कोई आसान काम तो नहीं था।
आज बाजार से लौटते समय घर के बाहर एक गरीब भिखारन, जो ठीक से खड़ी भी नहीं हो पा रही थी, अपने दूधमुहे बच्चों को गोद में लेकर मालती के सामने गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘माई कुछ खाने को दे दो तीन दिन से पेट में कुछ गया नहीं है। छाती में दूध नहीं आने से बच्चा भी भूख से बेहाल है। माँई थोड़ा रहम हो जाए।’’
मालती मारे गुस्से से तमतमा उठी, ‘‘चल-चल परे हट। छूना मत अभी, ये सब अशुद्ध हो जाएँगे। मुझे अभी और भी बहुत सी तैयारी करनी है।’’
— प्रदीप शर्मा