अनुभव
मनोज दसवीं कक्षा में पढ़ता था। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान था। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ वह खेलकूद में भी बहुत तेज था। वार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुकी थी । उसके सभी पर्चे अच्छे हुए थे। इसलिए वह निश्चिन्त था। उसने निश्चय किया कि वह गर्मी की छुट्टियों में अपने पापा जी के साथ उनकी दुकान पर बैठेगा ताकि उसे कुछ अनुभव भी हो और समय भी कटे।
उसके पिता जी की शहर के सदर बाजार में किराने की दुकान थी। वे अपनी सहायता व सुविधा के लिए एक नौकर भी रखते थे। वे अक्सर मनोज से अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देने को कहा करते थे। वे अभी से उसमें दुकानदारी का मोह पलने नहीं देना चाहते थे।
रात को भोजन के समय मनोज ने पापा जी से छुट्टियों में दुकान पर बैठने की बात कही।
‘‘मनोज बेटे, अभी आपको पढ़ाई की तरफ ध्यान देनी चाहिए। दुकानदारी के लिए तो सारी उमर पड़ी है।’’ पापा जी ने समझाया।
मनोज कुछ कहता उससे पहले ही उसकी मम्मी ने घुसपैठ कर दी- ‘‘मान भी जाइए ना, बस छुट्टियों में ही तो बैठने की बात है। कुछ सीख भी लेगा ताकि आवश्यकता पड़ने पर काम आ सके।’’
‘‘ठीक है, आप लोगों की यही इच्छा है तो कल से ही दुकान पर चलने के लिए तैयार हो जाओ।’’ पापा जी ने हथियार डाल दिए। मनोज का मन खुशी से झूम उठा।
अब मनोज अपने पापाजी एवं नौकर के साथ दुकान पर बैठने लगा। धीरे-धीरे उसे भी चीजों के नापतौल, भाव आदि याद हो गए। वह ग्राहकों को सामान तौलकर देता और हिसाब कर उनसे रुपये ले लेता। धीरे-धीरे उसकी लगन, मेहनत और ग्राहकों के प्रति उसके व्यवहार से पापा जी भी आश्वस्त हो गए।
दो माह कब बीत गए, उसे पता ही नहीं चला। इस बीच उसका परीक्षा परिणाम भी निकल गया। वह प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ था।
एक दिन दुकान से घर आते समय उसके पिताजी की मोटर सायकल को एक ट्रक ने ठोकर मार दी। उन्हें कुछ लोगों ने अस्पताल पहुँचाया। उन्हें कई जगह गंभीर चोटें लगी थी, सो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।
मनोज और उसकी मम्मी बारी-बारी से उनके साथ अस्पताल में रहते। इस बीच उनकी सारी जमा पूँजी दवा-दारू तथा डाक्टरों की फीस में भेंट चढ़ गई। दस दिन बाद उन्हें अस्पताल से तो छुट्टी मिल गई, पर मनोज के पिता जी पूर्ण स्वस्थ नहीं हो पाए थे। डाक्टरो ने उन्हें कम्पलीट बेडरेस्ट की सलाह दी थी।
मनोज ने सोचा ऐसे तो काम नहीं चलेगा। कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। एक्सीडेण्ट के बाद से दुकान बंद थी, क्योंकि सिर्फ नौकर के भरोसे दुकान नहीं छोड़ा जा सकता था। उसने मम्मी से बात की कि वह स्कूल समय के अलावा बचे समय में सुबह-शाम कुछ देर नौकर के साथ दुकान पर बैठेगा, ताकि कुछ आमदनी हो और ग्राहक भी न टूटें। मम्मी पहले तो कुछ झिझकीं पर बाद में मनोज के जोर देने पर “हाँ” कर दी।
अब मनोज नौकर के साथ दुकान पर बैठने लगा। दुकान पहले की तरह चलने लगी।
कुछ ही दिनों में मनोज के पिता जी भी पूर्ण स्वस्थ हो गए। इस प्रकार मनोज की दुकानदारी का अनुभव समय पर काम आया।
— डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा