कविता

आधुनिकता..

बदलते समय में आने लगी है
रिश्तों में नयापन…
भुलाने लगे हैं लोग
संस्कारों की अहमियत
मिटने लगी है
लाज, शर्म हया की लकीरें
बाप बेटे आज साथ मिलकर
पीते हैं बीयर
बिगड़ने लगे हैं शब्दों के लहजे
दोनों आपस में “यार” करके करते हैं बातें
बेटियाँ होने लगी है मनचली
अधनंगे कपड़े पहनकर घूमती गली-गली
बाप, दादा, नाना बुजुर्गो के समझ
करती हैं वायफ्रेंड से बातें
नारी शशक्तिकरण के नाम पर
ये कैसा नंगापन ?
माँ का आँचल बदलते समय की धार में
गया है सिमट
जीन्स टॉप पहनकर कराती हैं स्तनपान
बदला मातृत्व का रूप….
धूमिल हुई भावनाओं का लगाव
संस्कारों की चढ़ने लगी है बलि
ये विकास है या पतन ?
जिसमें गौण हो रहे रीति-रिवाज
संस्कार की मान्यताएं।

*बबली सिन्हा

गाज़ियाबाद (यूपी) मोबाइल- 9013965625, 9868103295 ईमेल- [email protected]