एक सन्नाटा यहाँ बिखरा हुआ
नफरते बोना यहाँ सस्ता हुआ |
प्रेम उपजाना बहुत महंगा हुआ |
हर तरफ काँटो की बो डाली फसल
और अब तुम पूंछते हो क्या हुआ |
आग बरसाता हुआ सूरज कहे –
गर न चेते तो समझ मरना हुआ |
डाल पर बैठे उसी को काटते-
देख दुर्बुद्धि मनुज सदमा हुआ|
सूखते झरने सरोवर झील सब –
एक सन्नाटा यहाँ बिखरा हुआ |
तिशनगी बढ़ती ही जाए अब यहाँ-
है समंदर दूर तक फैला हुआ |
है धरा तपती शजर की छांव बिन –
मौसमो का रुख लगे बदला हुआ |
मंजूषा श्रीवास्तव