कविता

विडंबना

विडंबना
छल किया पुरुष ने नारी से यह तथ्य सभी ने पहचाना |
नारी से नारी ठगी गयी यह तथ्य नहीं क्यों पहचाना |
पुरुषों नें तो अपनी महिमा के लिए दबाया नारी को |
उनका ऊंचा स्थान रहे इस लिए गिराया नारी को |
नर ने नारी की पिछड़न को ही बस अपना विकास माना |
दहलाया अपनी वहशत से पुरुषत्व स्वयं का दिखलाया |
दासी नारी को बना स्वयं शासक बन बैठा नारी का |
सेवा करवायी जी भर के और किया कठिन जीना उसका |
पर क्या नारी के द्वारा ही नारी का कम अपमान हुआ ?
रिश्तों की बलिहारी देकर खुद नारी को ही मिटा दिया |
पुरुषों से ज्यादा नारी ने नारी पीड़ा का वृत ठाना |
छल से बल से निर्ममता से बस छीन लिया मुँह का दाना |
अपमानित करने को नारी सासू का रूप धरे आयी |
ननदी का रूप लिए नारी निर्मम आँसू बनकर आयी|
पद पाकर उसने जिठनी का देवरानी को मारा ताना |
नारी का शोषण उत्पीड़न युग युग से होता रहा यहाँ |
पुरुषों के अत्याचार यहाँनारी पर सदा बरसते हैं |
पर नारी के द्वारा उसपर कब सुमन नेह के बरसे है |
जागो अपनी आँखें खोलो नर और नारी की बात नहीं |
अन्याय किसी के द्वारा हो उसपर आवाज बुलंद करो |
©®मंजूषा श्रीवास्तव

*मंजूषा श्रीवास्तव

शिक्षा : एम. ए (हिन्दी) बी .एड पति : श्री लवलेश कुमार श्रीवास्तव साहित्यिक उपलब्धि : उड़ान (साझा संग्रह), संदल सुगंध (साझा काव्य संग्रह ), गज़ल गंगा (साझा संग्रह ) रेवान्त (त्रैमासिक पत्रिका) नवभारत टाइम्स , स्वतंत्र भारत , नवजीवन इत्यादि समाचार पत्रों में रचनाओं प्रकाशित पता : 12/75 इंदिरा नगर , लखनऊ (यू. पी ) पिन कोड - 226016