गज़ल
दिखाई दिए यूँ कि बेख़ुद किया
🌀वज़्न–122 122 122 12
बढाओ न तुम इतनी भी दूरियाँ
कि आने लगे याद में सिसकियाँ.
रहो दूर चाहत लिखे चिट्ठियाँ
हुई जो कमी माफ गलतियाँ.
उदासी भरी मोसमी आंधियाँ
शहर में न पाई कही बिजलियाँ.
लगा खेल में अब बढ़ी पारियाँ
सुने अब कही बज रही तालियाँ.
लगा अब दिखी पेड़ पर तख्तियाँ
कही मोत कि तो नहीं धमकियां.
हवा चल रही खोल दो खिड़कियां।
बढ़े फासला जो बने दूरियाँ।
रेखा मोहन १३/६/१८