गज़ल
गज़ल
१२२ १२२ १२२ १२२
खिलाफत लगी यूँ कि उलझा रही है
गुलो में सियासत घुली ज़ा रही है.
सियासत लियाकत कही भा रही है
सियासत में नफरत उकसा रही है.
लगी जिन्दगी रोष सी ज़ा रही है
लगे क्यों फन गान में आ रही है.
अमीरी लगी ऐश में गा रही है
कही राह में भूख तडफा रही है.
बनी मजहबी सोच रेखा उकसा रही है
अदा हँस रही देख सी गा रही है .
रेखा मोहन १४ /६/२०१८