“मुक्तक”
पड़ जाती हैं आ गले, द्वंद- फंद व्यवहार।
उठते सोते जागते, लिपटे रहते प्यार।
कहती प्रेम पहेलियाँ, मुझसे लिपटो मीत-
उत्कंठित प्रिय भावना, कत प्रपंच प्रतिकार॥-1
अब तो शीतलम न रही, बहती नदी समीर।
कचरा कहता मैं जहाँ, कैसे वहाँ जमीर।
पंख नहीं मेरे बदन, उड़ा रहें हैं लोग-
पहले नियति महान थी, अब चित कहाँ अमीर॥-2
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी