लघुकथा

लघुकथा – असमंजस

भगवान् है या नहीं है, मेरा इसमें किसी से भी कोई संवाद करने को मन नहीं होता । सच्ची बात कहूं, दरअसल मैं कोई धर्मी नहीं हूँ। न तो मैं धर्म अस्थान में जाता हूँ और जाहर है न कोई धार्मिक समागम करवाता हूँ। मैं तो बस एक ही बात में विशवास रखता हूँ की मैं एक इंसान हूँ। इंसान के फ़र्ज़ किया हैं, उन को निभाते निभाते ज़िंदगी में मैं कोई सफल नहीं हुआ हूँ। जवानी की उमर तक मैं धार्मिक अस्थानों पे जाया करता रहता था। इसमें बताया जाता था की बुरे काम करने से भगवान् हमें बहुत सजा देगा, सुन सुन कर मैं डरता रहता था। जब कुछ लोगों को बुरे काम करते देखता था तो मेरे मन में यही आ जाता था की इन को बहुत बड़ी सजा मिलेगी लेकिन उन को कुछ नहीं हुआ बल्कि मेरे से वोह आगे निकल गये और मैं बहुत पीछे रह गया। मैंने तो सच्चाई और ईमानदारी में ही ज़िंदगी बिता दी।

मेरे बारे में बहुत लोग बोलते थे की मैं नास्तिक हूँ लेकिन पता नहीं यह धार्मिक रस्में, धर्म गुरुओं की बातें मुझे सिर्फ कर्म काण्ड ही लगती थीं। मेरी पत्नी धर्म विश्वासी होने के कारण बहुत सा धन, धार्मिक अस्थानों और धर्म गुरुओं पे खर्च कर देती थी, मैंने उस को कभी रोका नहीं था लेकिन दुःख मुझे तब होता था जब मैं कुछ धन से किसी की मदद कर देता। वोह सोचती थी की मैं खामखाह औरों पे धन लुटा रहा हूँ, यही धन मुझे धर्म के नाम पे खर्च करना चाहिए था। इसी लिए तो भगवान् ने हमारी सुनी नहीं, वोह कहती !

देश में नए बजट की बातें हो रही थीं। बजट से एक दिन पहले मेरे साले साहब हमें मिलने आये और आते ही बोले, जीजा जी, कल को बजट है और पैट्रोल महँगा हो जाएगा, चलो पहले गाड़ी की टैंकी भरवा लें, फिर ही बाहर कुछ खाएंगे। मैं साले साहब के पास की सीट पर बैठ गया और वोह गाड़ी एक पैट्रोल स्टेशन पर ले गया। आगे बहुत बड़ी कारों और मोटरसाइकलों की लाइन लगी हुई थी और कुछ लड़के पैट्रोल भर रहे थे। आधा घंटा हमें पम्प पर पहुँचने को लगा। साले साहब ने पांच सौ रूपए का पैट्रोल भरने को कह दिया। लड़के ने पैट्रोल भरके कैप फिट कर दी। साले साहब ने लड़के को दो हज़ार रूपए का नोट पकड़ा दिया। लड़के के हाथ में नोटों का बंडल पकड़ा हुआ था और उसने दो हज़ार का नोट ले कर बाकी रूपए वापस कर दिए।

पैट्रोल स्टेशन से बाहर आते ही साले साहब ख़ुशी से झूम उठे और मुझे बोले, ” बजट का बहुत फायदा हुआ हम को जीजा जी, उस लड़के ने मुझे पांच पांच सौ के चार नोट वापस कर दिए, पैट्रोल फ्री में मिल गया “, मैंने कुछ चिंतत हो कर कहा, यह अच्छा नहीं हुआ, चलो पांच सौ रूपए उस लड़के को वापस कर आते हैं। साले साहब कुछ अजीब मुंह बना कर बोले, ” अरे जीजा जी, आप कितने भोले हो , यह लोग हर रोज़ कितने पैसे बनाते हैं, आप को मलूम होना चाहिए, और आज हम ने इन से कमाई कर ली “, मैं बोला, ” देख ! वोह एक गरीब लड़का है, उस से मालक हिसाब मांगेगा तो उस की नौकरी खतरे में पढ़ जायेगी, चल अभी वापस कर आते हैं “, अब साले साहब कुछ अजीब नज़रों से मेरी ओर देखते हुए बोले, ” हमारी बहन ठीक ही कहती आई है कि उसे आप के घर में कभी सुख नहीं मिला, जिस घर में मॉडर्न हातमताई हो, उस घर में गरीबी का नाच नहीं होगा तो किया होगा “, कहते हुए साले साहब ने गाड़ी तेज कर दी।

आज मैं अपने आप से हार गया था, इंसान बना रहूं या मैं भी धर्मी बन जाऊं, सोचता हुआ चुप हो गया।

— गुरमेल सिंह भमरा, इंगलैंड