ओ परदेशी ओ मतवारे
ओ परदेशी ओ मतवारे,
लिखूं तुम्हे क्या तू ही बता रे।
कागज कलम लिए बैठी हूँ,
खो जाती तेरी याद सखा रे।।
मन तरसे तेरे दर्शन को,
हिय में तूफान उठा है।
स्वप्न सुखद देख-देख के,
विरह ह्रदय में जगा है।।
नयन ढूँढते हैं तुझको,
होंठो में प्यास जगी है।
नहीं पास तू है मेरे,
पर तेरी चाह बढ़ी है।।
कागज पर बेशर्मी से,
ना प्यार लिखा जाता है,
अंक आपके है रहना,
ये चाह लिखा ना जाता है।।
खिला हुवा मेरा चेहरा कहीं,
विरह अग्नि ना जल जाये।
मोहित थे जिस पर साजन,
वह रूप श्याम ना हो जाये।।
आ जाओ फिर एक बार,
मोहे अपने अंग लागलो।
प्रेम की अपनी बारिश में,
प्रिय मुझको पुनः भिगालो।।
चिंतित ना हो सुनो प्रिये,
मैंने तुमसे प्रेम किया है।
अग्नि देव के सन्मुख ही,
सात वचन भी लिया है।।
सुन सजनी मैं तेरा हूँ,
तेरा होकर ही रह जाऊंगा।
मर जाऊंगा मैं लेकिन ,
तेरी चाह न छोड़ पाऊंगा।।
चिंता तेरा व्यर्थ सखी,
मैं तुमको छोड़ न जाऊंगा।
सात जनम का लिया वचन,
मैं साथ तेरा ही निभाऊंगा।।
।।प्रदीप कुमार तिवारी।।
करौंदी कला, सुलतानपुर
7978869045