लघुकथा – शादी-सम्मेलन
श्रद्धा अपनी सहेलियों के साथ ट्रेन में परीक्षाके बाद विवाह के लिये घर आ रही थी| दोनों सहेलियों के साथ श्रदा अपनी बर्थ पर बैठी थकी सोने की तैयारी व्यस्त लगी| जब श्रदा को हिलते देखा तो सहेलियों ने पूछा, “नींद नहीं आ रही क्या ? पहले बी.टैक की पढाई ने नींद खराब की, अब विवाह की सोच लगी होगी|” श्रदा ने बात बढाते कहा, ”नहीं मुझे विवाह की कोई चिंता नहीं है, दादा जी समाज-सुधारक है और अपनी सामूहिक संस्था के वो अध्यक्ष हैं, जो हर साल सामूहिक शादियों का आयोजन करवाते हैं| साल में एक बार ये समारोह तो होता ही है| पहले हम दर्शक होते थे, अब तो खुद ही हिस्सा होंगे|” दोनों सखियाँ श्रदा की तरफ हैरानी से देखती हुई पूछने लगीं, “हम नहीं समझे तुम्हारा मंगेतर तो अमेरिका से आ रहा, विवाह तो शान-शौकत से ही होगा| लड़का भी डाक्टर है और पार्टी भी बड़ी है| तुम भी तो शहर के रईस लोगों में से एक हो, विवाह में सेलिब्रिटी भी आशीर्वाद देने आएंगे|” श्रदा बोली, “ऐसा कुछ भी नहीं है, हमारी शादी तो हमारे ही समाज के सम्मेलन में ही होने वाली है| हमारे यहाँ परिवार में दादा जी के कहने पर हर अमीर-गरीब, हर जाति के दूल्हा दुल्हन को सारा सामान संस्था की तरफ से मिलता है| सब की पोशाक में रंग भेद हो सकते हैं, गहने डिजाईन अलग हो सकते है , पर होता सब कुछ एक सा ही है|” “ यहाँ सबको भक्तिभाव से बंधन में बांधा जाता है, जिसको कोई नकदी देना हो तो बाद में दे सकते हैं| जो पैसा अकेले मेरे विवाह पर खर्च करना था ,उसमें कितनों का विवाह -बंधन हो जायेगा |” दोनों सखियाँ बात सुनकर सोच रही थीं – हे प्रभु! अगर सभी लोगों की सोच इस तरह की हो जाये, तो शादी विवाह को लेकर होने वाले परिवार की मानसिक एवं आर्थिक तंगी से बचा जा सकता है। मौलिक और अप्रकाशित.
रेखा मोहन 25/६/१८
रेखा मोहन जी , लघु कथा मुझे सभ से ज़िआदा अछि लगी क्योंकि हम ने १९६७ में दस ब्रातिओं और बगैर दान दहेज के शादी कराई थी . आप की सोच बहुत अछि है .अगर लोग ऐसा करने लगें तो भ्रूण हतियाएँ खत्म हो जायेंगी और बेटे बेटी में कोई फर्क नहीं करेगा .