गज़ल
इस शहर का हर शख्स मेरा राज़दां है अब
जो राज़ कल तलक था वो दास्तां है अब
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जो समझते थे दुनिया न चलेगी उनके बिन
उन तवंगरों का बाकी न कोई निशां है अब
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वो शख्स मर गया है जिसको तेरी तलब थी
मैं क्या करूँ बला से जो तू मेहरबां है अब
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तकदीर मेरी मुझको ले आई उस राह पे
जहां दूर-दूर तक न कोई सायबां है अब
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बहार जिसका रस्ता कुछ भूल सी गई हो
उस उजड़े हुए चमन सा मेरा जहां है अब
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तबतक ही घर था ये तू रहती थी यहां जबतक
बस ईंट-पत्थरों का इक खाली मकां है अब
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।