लेख

सरकार की आलोचना

किसी भी सरकार के कामों नीतियों का विश्लेषण अपने निजी राजनैतिक दृष्टि से परे जाकर करना चाहिए। अभी पिछले दिनों वर्तमान सरकार की नीतियों से उपजे प्रभाव पर एक साथी से कुछ चर्चा हुई। इस चर्चा के कुछ बिंदु इस प्रकार के थे –

साथी का कहना था कि सरकार की कुछ आर्थिक नीतियों के कारण निजी क्षेत्र में विनिर्माण के कार्य अवरुद्ध होने से विकास और रोजगार के अवसर कम हुए हैं…इसका कारण उन्होंने सरकार के भ्रष्टाचार कम करने हेतु नगद-मुद्रा के रूप में वित्तीय लेन-देन पर नियंत्रण के नियमों को बताया। उनका कथन था कि इन नियमों के कारण लोग पैसा होने के बाद भी उसे विनिर्माण के क्षेत्रों में खर्च नहीं कर पा रहे हैं, इसी का परिणाम है कि शहरी विकास हेतु निजी सेक्टर में शहरी कालोनियों एवं भवन निर्माण का कार्य प्रभावित हुआ है। साथ ही उन्होंने तर्क दिया कि विकास के लिए भ्रष्टाचार को एक आवश्यक और अनिवार्य बुराई के रूप में स्वीकार करना ही होगा। इन बातों के साथ उनका यह भी तर्क था कि मनरेगा जैसी योजना में सरकार की रुचि कम हो जाने से श्रमिकों में पलायन बढ़ा है और गाँवों में रोजगार के अवसर भी कम हुए हैं, जबकि मनरेगा जैसी योजना के कारण ही एक समय में लोगों की क्रयशक्ति में उछाल आया था।

मैंने ध्यान दिया साथी ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही सरकार की उन आर्थिक या वित्तीय लेन-देन के नियमों के प्रभाव और प्रमाणिकता को स्वीकार किया जिसके कारण कुछ हद तक भ्रष्टाचार हतोत्साहित हो सकता है। किसी भी सरकार की भ्रष्टाचार कम करने या इसपर रोक लगाने वाली नीतियों के महत्व को हमें स्वीकार करना ही होगा। उस साथी को समझाते हुए मेरे अपने तर्क थे कि भ्रष्टाचार से सबसे अधिक नुकसान गरीब तबकों को ही होता है और उसमें भी निर्बल वर्ग की जातियाँ भ्रष्टाचार से सबसे अधिक प्रभावित होती हैं। क्योंकि इन्हीं जातियों की सरकारी सहायता पर निर्भरता भी सर्वाधिक होती है। चिकित्सा, शिक्षा जैसे क्षेत्रों में भ्रष्टाचार से गरीबों को इसकी गुणवत्तापरक सर्वसुलभता प्रभावित होती है। भ्रष्टाचार पर रोक लगने से जनकल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में गुणात्मक परिवर्तन आता है। निश्चित ही वित्तीय लेन-देन के नियमों से काले धन के व्यय पर अंकुश लगा है तथा सरकार की राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि हुई है। मैंने स्वयं अनेक ऐसे उदाहरण देखे हैं जहाँ पहले किसी वित्तीय लेन-देन में सरकार के टैक्स खाते में महज दो से तीन लाख जाते थे वहीं यह बढ़कर दस से बारह लाख रूपया हो गया है। क्योंकि ऐसे वित्तीय लेन-देन अब बैंकिग प्रणाली के माध्यम से होने लगे हैं, जिससेे ये टैक्स निगरानी प्रणाली के दायरे में आ जाते हैं।

भ्रष्टाचार के संबंध में मेरे अपने विचार हैं कि इस देश में भ्रष्टाचार किसी नैतिक चेतना से दूर नहीं हो सकता। यहाँ लोगों के बीच भ्रष्टाचार एक स्वाभाविक प्रवृत्ति बनकर घर कर चुकी है। इसके लिए नगद वित्तीय लेन-देन को निगरानी तंन्त्र की परिधि में लाना होगा, भले ही कठोर कानून बनाना पड़े।

मैंने साथी से यह भी कहा कि सरकार की राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि से गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाओं हेतु धन की उपलब्धता बढ़ जाती है। और इस तरह भ्रष्टाचार रुकने से सबसे अधिक लाभ गरीबों को ही होता है। मैंने उन्हें बताया कि जिस मनरेगा जैसी योजना के कारण क्रयशक्ति में उछाल की बात की जाती है, दरअसल यह आम श्रमिकों के आय-वृद्धि का कारण नहीं था, बल्कि मनरेगा में व्यापक भ्रष्टाचार के कारण आटोमोबाइल क्षेत्र में यह उछाल सर्वाधिक देखी गयी थी। मैंने उन्हें समझाया कि भ्रष्टाचार का लाभ सरकारी तंत्र से जुड़े कुछ मुट्ठी भर लोग उठाते हैं और इनमें उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ जाने से तेल या अन्य उपभोक्ता वस्तुओं पर आयात खर्च बढ़ जाता है जिसके कारण देशी पूँजी का प्रवाह विदेशों की ओर होता है और इस तरह के अनुत्पादक व्यय से अर्थव्यवस्था शनैः शनैः कमजोर होती चली जाती है, दरअसल यही प्रवृत्ति बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण भी बनती है। इस तरह भ्रष्टाचार, विकास का केवल भ्रम पैदा करता है जबकि यह किसी भी देश के लिए, आर्थिक और सामाजिक दोनों रूपों में घातक प्रवृत्ति है।

मेरी इस बात पर मेरे साथी ने कहा कि ठीक है, लेकिन सरकार हमारे टैक्स को उद्योगपतियों पर लुटा रही है उन्हें देश की पूँजी लेकर विदेश भागने दे रही है, या फिर सरकार की कुछ नीतियों से उद्योगपतियों की पूँजी में आशातीत वृद्धि देखी जा रही है। मैंने कहा, हाँ सरकार को इस दिशा में भी अवश्य काम करना होगा, अन्यथा उसके सारे प्रयास निष्फल हो सकते हैं। अनुत्पादक कार्यों या मात्र पोर्टफोलियो टाइप के निवेश को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। बड़े बैंकिंग-ॠण के लिए निगरानी-तंत्र विकसित करते हुए पारदर्शी प्रणाली अपनानी चाहिए।

मुझे 2014 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान वर्तमान प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए एक भाषण की याद आती है जिसमें उन्होंने कहा था, “मुझे कोई नई योजना नहीं चलानी, जो योजनाएं चल रही हैं उन्हीं को ईमानदारीपूर्वक लागू करेंगे।” सरकार को इस दिशा में और ठोस कदम उठाने चाहिए।

अंत में एक बात पर विशेष रूप से हमें और गौर करना होगा किसी भी सरकार की नीतियों की आलोचना या प्रशंसा करते समय हमें अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को दरकिनार करके ही करना चाहिए। अन्यथा हम जनमानस को भ्रमित करने का कार्य करते हैं, और दुर्भाग्य यही है कि आज यह कुछ ज्यादा ही होने लगा है। हलांकि सरकार को भी इस तरह से कार्य करना चाहिए जिससे आम जनमानस के बीच भय और भ्रम का वातावरण न बनने पाए।

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.