तुम चलोगी क्या
“तुम चलोगी क्या?” क्षितिज ने जूतों के फीते बाँधते हुए रसोई में व्यस्त रश्मि से पूछा। कुकर की सीटी में क्षितिज की आवाज़ कहीं दब गई और सवाल जस का तस वहीं खड़ा रहा। जब कुछ देर तक कोई जवाब नहीं आया तो उसने फिर पूछा-“रश्मि,तुम चलोगी क्या?”
उसकी तेज़ आवाज़ सुनकर मानो रश्मि किसी नींद से जाग गई हो और हड़बड़ाकर उसने पूछा-“कहाँ?”
“तुम्हें क्या हो गया है? हर बात तुम भूल जाती हो। कल ही तो बताया था कि मेरे ऑफिस के दोस्त रोहन की सगाई की पार्टी है आज।”
अन्यमनस्क रश्मि ने बुझे मन से कहा- “ठीक है, शाम को मैं तैयार रहूँगी। वैसे मैं क्या क्या पहनूँ?”
रश्मि का सवाल इस बार क्षितिज के सवाल की तरह कार के इंजन की चीख में दब गया। और रश्मि का वो सवाल वहीं का वहीं रह गया।
सुबह से हो रही छिटपुट बारिश की कुछ छींटें जब रश्मि के चेहरे पे पड़ी तो उसे अहसास हुआ कि बारिश हो रही है। हालाँकि उसका बदन तो हर सावन की बारिश के साथ भीग जाता था, पर मन रेगिस्तान की तरह सूखता जा रहा था।
रश्मि और क्षितिज की शादी को कुछेक दो साल ही हुए थे लेकिन इन दो सालों में उनके रिश्ते में दो जहां का फासला आ गया था। क्षितिज को अपने कामों से फुर्सत नहीं और रश्मि पढ़ी-लिखी और आधुनिक समाज में पल कर भी अपने जीवन के सबसे खूबसूरत और हसीन लम्हें घर की चार दीवारी से बातें करती और बर्तनों से लड़ते-झगड़ते गुजार रही थी।
पर उनके प्यार की शुरुआत भी एक झगड़े, एक पार्टी और बरसात की एक शाम से ही हुई थी। दोनों की मुलाकात अपने साथी की शादी के दौरान खाने की लाईन में हुई थी । जैसे ही दावत की शुरुआत हुई, झमाजगम बारिश अपनी पूरी मादकता से लबरेज, न आब देखा न ताब बरस पड़ी। कतार में सभी लोग छिपने की जगह ढूंढने लगे, बस क्षितिज और रश्मि को छोड़कर। दोनों को आइसक्रीम और स्ट्राबेरी फ्लेवर्स पसंद थे। दोनों में जंग छिड़ी थी कि आइसक्रीम पर पहला हक़ मेरा है । इस हाथापाई में आइस क्रीम उछल कर कब रश्मि के भीगे चेहरे पे लिपस्टिक के साथ घुलने लगा, ये पता ही नहीं चला। हाथों से पिघलकर आइसक्रीम कब का ज़मीन में कब का गुम हो चुका था, बचे थे तो बस जुड़े हुए एक दूसरे के हाथ और दो गर्म साँसों से भाप बनती बारिश की बूंदें। रश्मि, क्षितिज की कब हो गई और क्षितिज कब खुद का ही नहीं रह गया,ये बस बारिश की बूंदें ही बयाँ कर सकती थीं। इश्क़ की हवा ऐसी चली कि दो भीगे जिस्म सदा के लिए एक खूबसूरत रिश्ते में बँध गए।
रश्मि आज उन्हीं यादों में खोई हुई खुद को पार्टी के लिए तैयार कर रही थी। बालों का जूड़ा किसी नागिन से कम नहीं लग रहा था। गले का हार जैसे पति के सात जन्मों की डोर हो। होंठों पे दहकती लाली और आंखों में छाई कजरारी किसी भी भले मानस को बेईमान कर सकती थी। शादी की वही साड़ी जिसे पहनके उसने अपनी ज़िंदगी की दूसरी पारी शुरू की थी, वही साड़ी पहनकर रश्मि हू-ब-हू नई-नवेली दुल्हन लग रही थी।
रश्मि चलने को बस तैयार ही थी । इंतज़ार था कि क्षितिज अब आए कि तब। प्यासे मन को शायद आज तृप्ति मिल जाए।
तभी रश्मि का मोबाइल बज उठा और क्षितिज ने कहा कि आज काम काफी है, सो आज पार्टी में नहीं जा सकते। मानो की रश्मि के होंठों तक किसी ने जाम पहुंचाकर उसके दामन में छलका दिया हो। और रश्मि का मन फिर एक बार सूखा ही राह गया।
और सूने घर में गूँजता रहा- “तुम चलोगी क्या?”
— सलिल सरोज