लघुकथा – सुनहरी चादर
कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी| नज़मा बेचैन थी| बड़ी मुरादों के बाद उसकी गोद भरी थी| अभी वो बच्चा छह माह का हुआ ही था कि इस बेरहम ठण्ड से निमोनिया का शिकार हो गया| हॉस्पिटल में बच्चा डाक्टरों की नज़रों में था तो नज़मा अल्लाह की रहनुमाओं में थी| दुआ मांग रही थी, मन्नतें मांग रही थी कि अल्लाह उसकी सुन ले और उसकी गोद भर कर न उजाड़े|
आखिर उसकी दुआ रंग लाई, उसके शौहर ने उसे बताया कि उनका बच्चा अब खतरे से बाहर है| दोनों ख़ुशी ख़ुशी अपनी औलाद को संभाले घर जा रहे थे| रास्ते की एक मज़ार देख अचानक नज़मा बोली, ‘सुनिए कार यहाँ रोक दीजिए,मैं यहाँ सुनहरी चादर चढ़ाने की मन्नत पूरी करके आती हूँ|’
बच्चे को पिता की गोद में देकर नज़मा पर्स ले कर उतर जाती है और मज़ार के पास की दूकान से अच्छी सी सुनहरी चादर ले लेती है| वो आगे बढ़ ही रही थी कि उसकी नज़र मज़ार के पास के पेड़ के नीचे दुबकी एक औरत पर जाती है जो सर्द हवाओं से बचाने अपनी गोद के बच्चे को अपनी छाती से चिमटाए थी| उसको देख नज़मा के ज़ेहन में एक आंधी सी कौंधी और वो एक पल मज़ार को सजदा कर अपने हाथों की पकड़ी चादर उस औरत को ओढ़ा कर कार की तरफ बढ़ जाती है|