मत्तगयंद सवैया
मधु सूदन मुरली धर मोहन ,
बृज को काहे बिसराय दियो |
मन प्राण निकाल चले मथुरा ,
यह देह निठुर बिसराय दियो |
बृषभानु दुलारी के हिय में ,
मनमोहन की छवि आनि सखी |
चितचोर चुराय लियो चित को ,
अब चैन नही दिन रात सखी |
बिरही लागे संसार सकल ,
हर अली कली कुम्हलाय गयी |
गोपी ग्वाले गऊँवें सगरी ,
माखन मिसरी बिखराय गयी |
मुरलीधर की मोहन मुरली ,
दिन -रात मोहे तड़पाय रही |
मथुराधि पते बिन दरश तेरे ,
नित अखियाँ नीर बहाय रही |
— मंजूषा श्रीवास्तव
लखनऊ (यू. पी )