गज़ल
क़ाफ़िया – आर
रदीफ़ – निकले
122 122 122 122
मतलबी सियासत लिये कदम निकले
जो गहरे में उतरे गुनहगार निकले|
रहे दखल में जों इरादा भले सा
बढ़ी आदतन तो तलबगार निकले।
मिला गम मुनासिब चलन यही क्या
खरे यूँ तलब से मददगार निकले।
चलों हम नये रास्ते पे निकलते
भरा हौसला में चुभनदार निकले|
उदासी भरा वतन में भार निकले
निभा में कहें वो समझदार निकले|
स्वरचित रेखा मोहन १०/७/१८