“शीतल सी वह छाँव कहाँ है ” !!
चेहरे पर है हंसी छलकती ,
मूछों पर वह ताव कहाँ है !!
है पचास को पार कर लिया ,
कुछ खोया कुछ पाया !
खूब कब्बडी , खो खो खेले ,
अमराई की छाया !
गुम है खेतों की पगडंडी ,
पहले जैसे ठाँव कहाँ हैं !!
ना गरजन है ना तरजन है ,
बदरा भटक गये हैं !
ताल तलैय्या , नदिया रीते ,
पनघट सटक गये हैं !
आग उगलती धरती लागे ,
कागज की वह नाव कहाँ है !!
तौर तरीके बदली खेती ,
घटी यहाँ मेहनत है !
कहाँ रहे वह बदन कसरती ,
सुविधाओं की लत है !
राजनीति है रामायण ना ,
घर घर में वह भाव कहां है !!
टन टन टन स्कूल की घण्टी ,
नहीं जगाती अब है !
घर में बजते हैं अलार्म अब ,
सुबह जगाती कब है !
गुरु शिष्य का नाता बदला ,
शीतल सी वह छांव कहाँ है !!
परिवर्तन देखे हैं हमने ,
बहुतेरे स्वीकारे !
जातिभेद और घटी अशिक्षा ,
घूंघट ना हर द्वारे !
पहले चलती थी अपनी अब ,
घरवाली का पांव यहाँ है !!
खुशियों का बंटवारा सीखा ,
हंसते सदा रहे हैं !
अपनापन बांटा है हमने ,
अपने बांह गहे हैं !
आज पराये अपने कर लें ,
भूल गये वे दाँव कहाँ हैं !!