मुक्तक – सरस नीर भी अब खतम हो रहा है
(१)
प्रकृति के क्षरण से तड़पती है धरती |
नयन नीर सूखा सिसकती है धरती |
न वन हैं घनेरे न पर्वत बचे हैं –
नहीं नीर संचित्व दरकती है धरती |
(२)
तपन से धरा आज जलने लगी है |
भरी प्यास से अब दरकने लगी है |
हुआ घट भी खाली मिटे तिशनगी क्या। –
बची स्वेद बूँदे भी उड़ने लगी हैं |
(३)
अरे जाग मानव अभी सो रहा है |
तू क्यों मृत्यु का बीज यों बो रहा है |
धरा है प्रकम्पित प्रदूषण क्षरण से –
सरस नीर भी अब खतम हो रहा है |
(४)
प्रदूषण से नदियों को मिलकर बचाएँ |
नई पौध आ फिर धरा पर लगाएँ |
करें संचयन नीर का फिर धरा पर –
विकट इस परिस्थिति से जग घर बचाएँ |
— मंजूषा श्रीवास्तव
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)