कविता – आतंकवाद
उमड़ता – घुमड़ता जहन में है प्रश्न
आतंक के जहर से ,
विशाक्त होता जन-जीवन ,
जुनून ;
सब कुछ तहस -नहस करने का |
हर तरफ़ अनकहा डर , खौफ़
क्यों ?
किसान , मजदूर और जवानों की परिस्थिति ,
सरहदों पर खिची लकीरें लहू की ,
श्रष्टि की सुंदरता को कर रहा विनष्ट |
करता उद्द्वेलित,
धरा ,गगन और अतल गहराई ,
अट्ट्हास करता खड़ा है गुरूर से,
ये आतंकवाद क्यों ?
जगह जगह दंगे -फसाद ,
निरीह मासूमों पर होता वार ,
प्रभूत्व की ईप्सा में करता कत्लेआम |
बिलखती स्त्री अस्मिता ,
भयावाह ज़िंदगी ,
दहशत भरा , वहशत भरा
ये आतंकवाद क्यों ?
जाग ! अब भी जाग ,
ओ मनु की संतान ,
मत भड़का !
आतंक की अग्नि
मत नाच !
हैवानियत का नंगा नाच ,
मत सेंक !
राजनीतिक स्वार्थ की रोटियाँ ,
मत कर !
जीव और प्रकृति का क्षरण श्रष्टि का विनाश |
हिंसा को त्याग
प्रेम को अपना
प्रकृती जो डोली तो ना बचेगा कोई
ना आतंक और ना आतंकवाद |
©®मंजूषा श्रीवास्तव