।।कैसे सन्यास ले लूँ मैं।।
कभी करता है जी सब छोड़कर सन्यास ले लूं मैं,
छोड़कर सारी जिम्मेदारी थोडा सा साँस ले लूँ मैं।
रोके माँ-बाप का चेहरा, आज फिर रुक लेता है,
जीते जी माँ-बाप के कहो कैसे सन्यास ले लूँ मैं।।
बचपन बीता यौवन की दहलीज पर पाँव जमाया हूँ,
लें लूँ अब संन्यास पुरानी चाहत फिर मन लाया हूँ।
दूँ त्याग कहो कैसे उसको जो हरपल मुझपर मरती है,
फेरे सात लगाकर जिसको साथ में अपने लाया हूँ।।
घर में रौनक अपने है किलकारी गूँज रही बच्चों की,
चाहत एक ही है अब मन में भविष्य सवारूं बच्चों की।
घुटने के बल दौड़ रहा अब बचपन घर के आँगन में,
धारण कर संन्यास स्वयं ही भविष्य बिगाडूँ बच्चों की।।
पैंतालीस कर पार पचासे ओर बढ़ा जाता हूँ,
पौरुष घटता है पर हर दिन प्रेम जवां कर जाता हूँ।
अरे बच्चों के दिल धड़क रहें, यौवन उन पर आया है,
इन लम्हों को छोड़ कोई क्या संन्यासी बन जाता है।।
हुई सगाई कल बेटी की खुशियाँ हैं आंगन में,
आई है बारात द्वार पर, मंड़प है सजाया आंगन में।
कल छोड़ हमारा आंगन लाडली डोली चढ़कर जाएगी,
मैं संन्यासी क्यों बन जाऊं कहो छोड़ बूढ़ी को आंगन में।।
भीड़ लगी है द्वारे अपने, सजे हुए हैं हम-दोनों,
चूड़ी कंगन बिंदी चुनरी, अंग-वस्त्र से हम-दोनों।
साथ रहा प्यारा अपना, ये भी सफर सुहाना होगा,
संन्यास नहीं श्मशान चले, अब अर्थी पर है हम-दोनों।।
।।प्रदीप कुमार तिवारी।।
करौंदी कला, सुलतानपुर
7978869045