(तरही ) ग़ज़ल
कभी दुख कभी सुख, दुआ चाहता हूँ
इनायत तेरी आजमा चाहता हूँ
वफ़ाओं के बदले वफ़ा चाहता हूँ
तेरे इश्क की इम्तिहा चाहता हूँ
जो भी कोशिशे की हुई सब विफल अब
हूँ बेघर मैं अब आसरा चाहता हूँ
ज़माना हमेशा छकाया मुझे है
अभी मैं उसे जीतना चाहता हूँ
दिये हैं बहुत दुख ज़माने ने मुझको
मैं तेरी कृपा की दवा चाहता हूँ
तू ने क्यों बनाया यही विश्व ब्रह्माण्ड
छुपे राज़ को जानना चाहता हूँ
निरपराध जो है, उसे क्यों सज़ा हो
बता अब तेरा फैसला चाहता हूँ
रिवाज आदमी ने सभी हैं बनाए
अहितकर सभी तोड़ना चाहता हूँ
— कालीपद ‘प्रसाद’