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एकांकी – अपना देश अपना शहर

पात्र परिचय
स्नेहा – घर की बड़ी बहू 30 वर्ष
स्मृति – घर की छोटी बहू 26 वर्ष
रूपेश – स्नेहा का पति 32 वर्ष
शंकर – स्मृति का पति 29 वर्ष

(पर्दा खुलते ही एक मध्यम वर्ग के परिवार का दृश्य। घर की बड़ी बहू स्नेहा हाल में रखी चीजों को करीने से सजा रही है। वह बार बार चीजों की जगह बदलती है फिर ध्यान से दूर जाकर उन्हे देखती है कि सही रखे हैं या नहीं। संगीत चालू है। स्नेहा की देवरानी स्मृति प्रवेश करती है।)

स्मृति – वाह भाभी आज तो घर बहुत ही खूबसूरत लग रहा है।
स्नेहा – सचमुच।
स्मृति – हां, और ये पेंटिंग तो बहुत ही सुंदर है। बिल्कुल सही जगह रखी है भाभी।
स्नेहा – नंदू को न पेटिंग बहुत पसंद है स्नेहा। अच्छा ये सोफासेट तो देख, सही जगह रखा है या नहीं।
स्मृति – मेरे ख्याल से वो पहले वाली जगह पर ही अच्छा लग रहा था। पिछले तीन दिन में तीन बार जगह बदली है बिचारे की।
स्नेहा – (हंसते हुए) सोफासेट भी कभी बेचारा होता है। पता नहीं नंदू को पसंद आएगा भी या नहीं। दो साल में उसकी पसंद भी तो बदल गई होगी न स्नेहा।
स्मृति – हां, फारेन में जो रहता है। वहां का कल्चर, वहां का माहौल देखकर बिगड़ गया होगा। वैसे भी यहां उसका दिल कहां लगता था। अच्छा किया जो रूपेश भैया ने उसे फारेन पढ़ने भेज दिया। कम से कम पढ़ लिखकर किसी अच्छी नौकरी पर तो लग जाएगा। यहां तो दिनभर…
स्नेहा – आवारा नहीं था वो… ।
स्मृति – (गुस्से में) आप तो उसका ही पक्ष लोगी ना। आपका लाड़ला देवर जो ठहरा।
स्नेहा – देवर तो वो तेरा भी है।
स्मृति – पर मुझसे तो उसकी बिल्कुल भी नहीं बनती। और इनसे तो… राम… राम… दोनों एक दूसरे को फूटी आंख नहीे सुहाते। एक घर में रहता है तो दूसरा बाहर चला जाता है।
स्नेहा – इसीलिए आज भी वसूली का बहाना बनाकर शंकर घर से बाहर चला गया है ताकि नंदू का सामना नहीं करना पड़े।
स्मृति – नहीं भाभी ऐसी बात नहीं है। वो दिवाकर जोशी है ना… जब तक खुद नहींे जाओ उधारी वापस ही नहीं करता।
स्नेहा – अच्छा तो तुझे ये भी पता है वो किससे मिलने गया है।
स्मृति – मुझसे कुछ नहीं छिपाता है वो।
स्नेहा – बहुत प्यार करता है ना तेरे को…
स्मृति – बहुत अच्छा है मेरा शंकर।
स्नेहा – वाह रे तेरा शंकर भगवान।
स्मृति – कितना काम करता है, फिर भी भैया उनसे शिकायत ही करते रहते हैं।
स्नेहा – खबरदार जो मेरे पति के बारे में कुछ कहा तो… । ये जो कुछ भी करते हैं सोच समझकर करते हैं। जरूर तेरे पति की ही कोई ग़लती होगी वरना ये उसे नहीं डांटते।
(स्नेहा का पति रूपेश हाथ में एक पैकेट लेकर प्रवेश करता है। पैकेट में लैटेस्ट माडल का एक नया मोबाइल है।)
रूपेश – (अंदर आते आते) स्नेहा… स्नेहा…
स्नेहा – आई…
रूपेश – (मोबाइल दिखाते हुए) देख मैं तेरे प्यारे देवर के लिए क्या लाया हूं।
स्नेहा – (पैकेट खोलते हुए) नया आइ फोन…
रूपेश – हां एकदम लैटेस्ट माडेल है।
स्नेहा – आपको याद था नंदू के लिए गिफ्ट लानी है। मैं सोच ही रही थी कि नंदू यहां महीना भर रहेगा तो बोर हो जाएगा।
रूपेश – इसीलिए तो। पूरे दो साल बाद आ रहा है… अकेला कैसे समय काटेगा। इस घर में तो हम दोनों को छोड़कर उससे कोइ्र्र बात भी तो नहीं करता है।
स्मृति – मुहल्ले में भी तो सब उससे दूर भागते हैं। जिसे देखो वो आवारा कहकर उससे कन्नी काटता है।
रूपेश – (स्मृति से) बिना मां बाप के, औलाद खुद को कितनी बेसहारा महसूस करती है… पापा तो तब ही गुज़र गए जब नंदू सिर्फ पांच साल का था। उसे तो ये भी नहीं पता था कि मौत क्या होती है। स्नेहा की गोद में बैठकर रो रहा था जब मैंने उसे उठाकर अपने सीने से लगाया और पापा के अंतिम दर्शन करवाए। उसने रोते रोते मुझसे पूछा भैया ये सब लोग मिलकर पापा को कहां लेकर जा रहे हैं।(सिसकते हुए) मैं उस नन्हीं सी जान को कैसे बताता कि पापा अब इस दुनियां में नहीं रहे।
स्नेहा -(अपने आंसू पोछते हुए) आप भी ना, भाई के आने की खुशी की घड़ी में रो रहे हो।
स्मृति – (रूपेश के पास आकर) सारी भैया मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था।
स्नेहा – पापा ने आखरी समय में कहा था कि नंदू तेरा देवर नहीं बेटा है। मैं नंदू को तेरे हवाले करके जा रहा हूॅं।
रूपेश – (स्मृति से) पापा के कहे वे शब्द आज भी मेरे कानों में बार बार गूंजते रहते हैं। पापा ने हम दोनों पर इतना विश्वास जताया, उस विश्वास को हम कैसे तोड़ सकते हैं।
स्नेहा – (स्मृति से) तेरी तो तब शादी भी नहीे हुई थी। शंकर भी तब इतना बड़ा नहीं था कि घर का बोझ संभाल सकता।
रूपेश – आज पापा होते और नंदू को फाॅरेन से वापस आता देखते तो कितना खुश होते कि मेरा बेटा पढ़ लिखकर वापस आ रहा है। अब वो यहां हिंदुस्तान में अपना बिजनेस करेगा।
स्नेहा – हां, बिजनेस मैनेजमेंट का कोर्स करके वापस आ रहा है। कुछ ना कुछ अच्छा ही करेगा।
स्मृति – (स्नेहा से) ये कह रहे थे कि एकबार जिसको विदेश का चस्का लग गया वो फिर कभी अपने वतन वापस नहीं आता। दो चार महीने घूम फिरकर फिर वापस चला जाएगा।
रूपेश – सच है, मैंने ऐसे कई केसेस देखे हैं।
स्नेहा – (रूपेश से) नहीं मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं होने दूंगी। मैं अपने नंदू को रस्सी से बांधकर रखूंगी।
रूपेश – काश मैं तेरा पति न होकर तेरा छोटा देवर नंदू होता।
स्मृति – (हॅसते हुए रूपेश से) तो भैया दीदी आपको भी रस्सी से बांधकर रखती।
रूपेश – (हॅसते हुए) मुझे तो जलन हो रही है तुम दोनों के देवर से।
स्नेहा – देवर नहीं मेरा बेटा है वो। पर वो अभी तक आया क्यों नहीं है?
रूपेश – आ जाएगा… उसका दोस्त वीरू है ना उसके साथ। सुबह से ही जाकर एअरपोर्ट पर अपने दोस्त का इंतजार कर रहा है। चार बार तो फोन कर चुका है कि प्लेन लेट चल रहा है। (रूपेश का मोबाइल बजता है) लो वीरू का ही फोन है। हां बोल वीरू। घर तक पहुंच गए… बेल बजा रहे हो। दरवाजा बंद है… दरवाजा किसने बंद किया?
स्नेहा – काम वाली बाई ने बंद किया होगा।
रूपेश – जल्दी खोलो, मेरा नंदू आ गया है।
(स्नेहा दौड़कर दरवाजा खोलने जाती है। उसके पहले ही नंदू और वीरू अंदर आ जाते हैं।)
नंदू – दरवाजा तो मैंने बाहर से ही खोल लिया भाभी। मुझे मालुम है खिड़की से हाथ डालकर दरवाजा कैसे खोलते हैं।हमेशा रात को देर से आकर ऐसे ही दरवाज़ा खोलकर सो जाता था। आपको तो पता भी नहीं चलता था कि मैं कब घर में आया।
स्नेहा – (नंदू का कान पकड़कर) बदमाश अभी तक तेरी आवारागर्दी चालू है।
नंदू – भाभी पिछले दो साल में दरवाजा तक नहीं बदला। सब कुछ वैसे का वैसा ही है।
(स्नेहा के पैर छूता है। रूपेश को गले लगाता है और स्मृति को हाथ जोड़कर प्रणाम करता है।)
रूपेश – बहुत कुछ बदल चुका है।
नंदू – बाहर रस्तों पर कुछ कुछ परिवर्तन नजर आया। क्यों वीरू?
वीरू – हां यार कई झोपड़ियां सिंजे बीमउमे में बदल गई हैं। कालोनी के बीचो बीच नया पार्क बन गया है।
नंदू – हां और वीरू रास्ते में बता रहा था कि पुराने दोस्त भी जो दिनभर आवारागर्दी करते थे अपने अपने काम में लग गए हैं।
वीरू – वो सब तुझे बहुत मिस करते हैं यार। अच्छा तो अब मैं चलता हूं। शाम को मेरे घर पर सभी पुराने दोस्तों की महफिल बुलाई है। आना मत भूलना। (स्नेहा को) भाभी प्लीज याद से भेजना, इस बार कोई बदमाशी नहीं होगी। सभी शरीफों को बुलाया है।
स्नेहा – ओ.के., फाइन…
नंदू – चल फिर शाम को मिलते हैं। (वीरू जाता है,रूपेश को) देखा भैया, जो लोग पहले मुझसे कन्नी काटते थे अब वो ही मुझे घर पर बुला रहे हैं। ये सब आपकी और भाभी की वजह से ही संभव हुआ है। (स्नेहा को) भाभी, अगर आप अपने गहने बेचकर मेरे जाने का बंदोबस्त न करती, रूपेश भैया बैंक से एजुकेशन लोन लेकर फारेन यूनिवर्सिटी में मेरी एडमिशन नहीं करवाते तो आज मुझे समाज में इतनी इज्जत नहीं मिलती। मैं तो ज़िंदगी भर आवारा बना सड़कों पर घूमता रहता।
स्नेहा – ये भी दिन न रहेंगे, इससे भी अच्छे दिन आऐंगे। अब तू आ गया है ना, अब सब कुछ ठीक हो जाएगा। चल हाथ मुंह धोकर तैयार हो जा मैं तेरे लिए खाना लगाती हूं। चल स्मृति…
(दोनों किचन में जाती हैं)
नंदू – शंकर भैया नहीं दिख रहे हैं।
रूपेश – वो वसूली पर गया है… आ जाएगा शाम तक।
नंदू – अभी तक वैसा ही है गरम मिजाज या उसमें कुछ परिवर्तन हुआ है।
रूपेश – क्या बताउं तेरे को। जब देखो तब पार्टिशन की बात करता है। कहता है नंदू तो अब इंडिया वापस आने से रहा इसलिये घर के दो हिस्से कर दो।
नंदू – भैया मेरी मानो तो वो जो मांगता है वो उसे दे दो।
रूपेश – पुश्तैनी मकान बेच दूं या घर के बीच में दीवार खड़ी कर दूं। ये सब मुझसे नहीं होगा नंदू।
नंदू – भैया वैसे तो मैं भी ऐसा नहीं चाहता पर इन हालात में और कर भी क्या सकते हैं।
रूपेश – नंदू, तू अब हमें छोड़कर चला तो नहीं जाएगा न।
नंदू – कभी नहीं भैया, मैं अब यहीं रहूंगा आपके पास, आपका बेटा बनकर। जिस इन्सान ने मेरी खातिर अपनी पूरी ज़िंदगी तबाह कर दी। अपनी संतान तक पैदा नहीं की सिर्फ इसलिए कि बच्चों का प्यार कहीं बंट न जाए ऐसे भाई को छोड़कर चला जाउंगा तो लोगों का इन्सानियत से विश्वास ही उठ जाएगा।
रूपेश – तू बहुत बड़ा हो गया है रे। मुझे पहले पता होता तो तुझे बचपन में ही फारेन भेज देता। (दोनों हॅसते हैं) अरे देख तेरी बातों बातों में मैं तुझे गिफ्ट देना ही भूल गया। ये देख, अच्छा है ना।
नंदू – एकदम लैटेस्ट माडेल का आइ फोन है भैया। थैंक यू भैया। यू आर ग्रेट।
रूपेश – अब हाथ मुंह धो ले फिर बातें करते हैं। (नंदू अंदर जाता है। रूपेश अपने आप से बातें करता है।) कितना सुधरगया है नंदू। शंकर चाहे कुछ भी कह ले। मैं जानता था नंदू वापस नहीं जाएगा। वो यहीं रहेगा। अपने देश में, अपने शहर में।
(बाहर से शंकर आता है।)
शंकर – ये आपका वहम है भैया… फिलहाल उसने आपका दिल रखने के लिए कह दिया होगा कि मैं वापस नहीं जाऊंगा। एकाध महीना रूकिये फिर पता चलेगा दूध का दूध और पानी का पानी।
रूपेश – शुभ शुभ बोल शंकर… मैंने अभी अभी नंदू से बात की है। हम तीनों भाई पापा के इस मकान में उनकी यादों के साथ रहेंगे।
शंकर – मुझो किसी की यादों में इंटरेस्ट नहीं है। मुझे मेरा हिस्सा चाहिये बस। बिना पैसे मैं कोई बिज़नेस नहीं कर पा रहा हूं।
रूपेश – हमारा पुुश्तैनी बिजनेस है ना साहूकारी का।
शंकर – भैया आप ही बताओ उसमें मुझे क्या मिलता है।आपके बिजनेस में मेरी हैसियत तो सिर्फ एक नौकर जैसी है। वसूली करके आओ और दो वक्त का खाना खाओ। इससे ज्यादा उम्मीद भी मत रखो। भैया अक मेरी शादी हो गई है,मेरे भी कुछ अरमान है, इच्छाऐं हैं, लालसाएं हैं। मेरी पत्नी के प्रति भी मेरी कुछ रिस्पांसिबिजिटीज़ हैं, अपना फ्यूचर है। नंदू को तो कर्जा लेकर पढ़ाया। उसे इस लायक बनाया कि वो अपना कुछ कर सके। और मुझे? बचपन से ही अपना नौकर बना रखा है। मैट्रिक के बाद तो पढ़ने भी नहीं दिया।
रूपेश – ऐसा नहीं है शंकर,हमारा बिजनेस ही ऐसा है, एक आदमी से नहीं संभलता। नंदू की उमर ही क्या थी उस वक्त। फिर उसे कैसे बिजनेस में लगा देता।
शंकर – ये सब आपकी चाल थी भेया।
रूपेश – शंकर…
शंकर – भैया अब आप कितनी भी सफाई दो, मुझपर उसका कांई असर नहीं होने वाला।
(नंदू अंदर से नैपकिन से हाथ पोंछते हुए आता है।)
नंदू – शंकर भैया। आप आ गए।
शंकर – तू कब आया ?
नंदू – कबका, अब तो पुराना भी हो गया हूं, सब से मिल लिया बस आपसे मुलाकात रह गई थी।
शंकर – मुझे वसूली से फुरसत मिले तो लोगों से मिलूं ना, यहां तो बस…
नंदू – क्या भैया आप भी, एक दिन काम बंद रहता था तो क्या फरक पड़ जाता?
शंकर – ये तू अपने बड़े भाई को समझा जो नौकरों की तरह मुझे इधर से उधर भगाते रहते हैं। जिसको देखो रूपेश भैया ने ये किया, रूपेश भैया ने ये कहा। सुन सुन कर पागल हो गया हूॅं।
नंदू – ऐसा क्यों सोचते हो शंकर भैया, रूपेश भैया तो देवता हैं देवता।
शंकर – देवता होंगे तेरे लिए। एक भाई पाई पाई को तरस रहा हे और दूसरा बाप का माल समझकर फारेन में ऐश कर रहा है।
रूपेश – देख शंकर तू न कुछ ज्यादा ही बोल रहा है।
शंकर – मैं तो कहता हूं पूरी दुनियां में कम्यूनिजम लाना चाहिये। फिर कोई किसीका शोषण नहीं करेगा।
(स्नेहा प्रवेश करती है।)
स्नेहा – अरे शंकर तू आ गया, चलो सब मिलकर खाना खाते हैं।
शंकर – खिलाओ उसको जिसके लिए बड़े प्यार से सब कुछ बनाया है। सब कुछ उसको दे दो, हमारे लिए कुछ भी मत रखना।
स्नेहा – क्या हुआ शंकर ?
रूपेश – वो ही, हमेशा वाली गलतफहमी। हम नंदू को ज्यादा चाहते हैं और इसे कम।
स्नेहा – ऐसा कैसे हो सकता है शंकर।इनके लिए तो तुम दोनों भाई एक बराबर थे और रहेंगे।
रूपेश – पापा को जब बिज़नेस में नुकसान हुआ तो भैया ने खूब मेहनत की थी। पूरे घर को संभाला था।
शंकर – पर वो इनकी शादी के पहले की बात है। अब भैया बदल गए हैं। इनकी आॅखों में केवल स्वार्थ दिखाई देता है।
स्नेहा – तो सीधे सीधे कह दे ना कि सारा कसूर मेरा ही है।
रूपेश – कुछ शरम कर आंख के अंधे। भाभी मां समान होती है। तुम दोनों को उसने बेटा समझकर पाला है। मम्मी तो बहुत जल्दी चल बसी। उस समय घर की देखभाल करने वाला भी कोई नहीं थ, तुम दोनों बहुत छोटे थे। ऐसे समय में स्नेहा ने।
स्नेहा – छोड़ो न आप भी।

रूपेश – इस बिचारी ने तो अपनी औलाद भी पैदा नहीं की। हमेशा कहती थी, भगवान ने मुझे दो दो लाल दिए हैं। (स्नेहा को) देख रही हो ज्यादा लाड़ प्यार जताने का नतीजा।
नंदू – आप भी किसे समझा रहे हो भैया। इसे तो ये भी पता नहीं कि इसकी शादी किन हालात में करवाई है भाभी ने…
स्नेहा – कम से कम तू तो चुप रह नंदू…
नंदू – नहीं भाभी आज मुझे बोलने ही दो। ये जो बंटवारा बंटवारा कर रहा है ना, इसे समझ में आना चाहिये कि ये अकेला कर भी क्या सकता है। (स्मृति प्रवेश करती है) लो अब स्मृति भाभी भी आ गई है तो तुम दोनों ही सुन लो। भैया और भाभी के मुझपर किये एहसान आपको दिख रहे हैं पर जो एहसान उन्होने आप पर किये हैं ना वो तो आपको पता भी नहीं हैं।
स्मृति – कैसा एहसान?
रूपेश – नंदू तु कुछ नहीं बोलेगा…
नंदू – नहीं भैया आज तो मैं बोलूंगा भी और इन दोनों की आंखें भी खोलूंगा। (शंकर से) मैं तो था ही आवारा, नाकारा… आपने कभी परिवार की तरक्की में दिलचस्पी ली क्या ? टिप टाप कपड़े पहनकर दोस्तों के साथ मटरगश्ती करते रहते थे। आप को तो पता भी नहीं था घर के हालात कैसे हैं। घर का खर्चा कैसे चलता है। मैंने सब छुप छुप कर सुना है अपने इन कानों से…
आपको ये सुनकर बहुत हैरत होगी कि आपकी शादी के समय स्नेहा भाभी ने क्या क्या किया।
रूपेश – हां, मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं तेरी शादी करवा सकता। सगाई तो हो गई पर मैं इसी चिंता में था कि शादी का खर्चा कहां से लाऊंगा। कहीं तेरे ससुराल वालों की नज़र में छोटा पड़ गया तो… तभी एक दिन स्नेहा ने अपना गहनों से भरा बक्सा मेरे सामने लाकर रख दिया। कहने लगी – शंकर और नंदू भी तो मेरे गहने हैं। ले लो ये गहने अपने हैं। किसी से उधार मांगकर नहीं लाए हैं।
नंदू – और बाकी बचे गहने मेरी पढ़ाई के समय दिए। मुझे भाभी ने खुद कहा था। कहने लगी इस उमर में गहने पहनूंगी क्या।जब तू पढ़ लिखकर फारेन से वापस आएगा तो तेरी शादी में
गहने खरीदकर पहनूंगी।
स्नेहा – सच ही तो है, मुझे कभी गहने पहने हुए देखा है।
नंदू – ये होती है भाभी मां। आज आप और मैं जो कुछ भी हैं इन दोनों की बदौलत। उनकी कुर्बानियों का बदला हम कभी नहीं चुका सकते। हां, अगर कोई एहसानफरामोश ही निकल जाए तो क्या कर सकते हैं।
स्नेहा – ऐसा नहीं कहते नंदू।
स्मृति – भैया ये सब बातें हमें सचमुच नहीं मालुम थीं।
नंदू – भैया और भाभी अपने एहसानों का ढिंढोरा नहीं पीटते।
स्मृति – भैया इनकी तरफ से मैं सबसे माफी मांगती हूॅं।
नंदू – (शंकर से) सॅारी शंकर भैया। आपका दिल दुखाने का मेरा बिल्कुल भी इरादा नहीं था। वो दृश्य मैंने अपनी आॅखों से देखा था जब भाभी अपने गहने उतारकर भैया को दे रही थी। मुझे इन दोनों ने कसम दे रखी थी इसलिए मैं चुप था। पर जब देखा पानी सर से ऊपर जा चुका है तो मुझे बोलना पड़ा। माफ करना अगर छोटा मुंह बड़ी बात कह दी हो तो।
शंकर – बस कर नंदू और कितना शर्मिंदा करेगा। भैया, भाभी हम दोनों से गल्ती हो गई। अब हम कभी भी बंटवारे की बात नहीं करेंगे।
स्मृति – हां भाभी। हम सब मिलकर इसी घर में रहेंगे और खूब मेहनत करेंगे।
नंदू – हमको मैनेजमेंट में पढ़ाया जाता था कि सब लोग मिल जाएं तो एक टीम तैयार हो जाती है और टीम में एकता हो तो कोई भी मुसीबत आ जाए कुछ फर्क नहीं पड़ता।
स्नेहा – हां वो पंछी और शिकारी वाली कहानी सुनी है ना, सारे पंछी मिलकर शिकारी के जाल को उड़ा ले जाते हैं।
नंदू – पुराणों में भी लिखा है कि भगवान श्रीकृष्ण को ’ गोवर्धनपर्वत ’ उठाने के लिए गांव वालों ने ही हिम्मत दिलाई थी और कहा था हम सब साथ हैं।
रूपेश – तू तो फारेन जाकर बहुत ही होशियार हो गया है रे।
स्नेहा – प्रामिस कर अब कभी फॅारेन जाने की बात नहीं करेगा।
नंदू – कभी नहीं भाभी, मैं प्रामिस करता हूं। (नंदू का फोन बजता है) हां बोल वीरू, शाम को ना, पक्का आ रहा हूं… अब किसको फारेन जाना है। अपने शहर और अपने देश जैसा आनंद कहीं मिल सकता है भला। म्ंेज वत ूमेज वनत बपजल पे जीम इमेजण्
स्नेहा – मैं न कहती थी नंदू अपना प्रामिस पूरा करेगा।
नंदू – आते समय सोचा था कि अब वापस नहीं जाऊंगा। लेकिन दोनों भाइयों का झगड़ा देखकर इरादा बदलने का मन कर रहा था। पर अब नहीं…अब मेरा इरादा पक्का हो गया है कि म्ंेज वत ूमेज वनत बपजल पे जीम इमेजण्
स्नेहा – तू अपनी मां को छोड़कर जाने की सोच रहा था। बदमाश… (नंदू के कान पकड़ती है।)
नंदू – अब तो झगड़ा ही खतम हो गया ना भाभी माॅं। अब क्यों कान पकड़ रही हो।
(सभी हॅसते हैं। स्नेहा नंदू को गले लगाती है।)
(समाप्त)

किशोर लालवाणी

फ्लैट नंबर 13, गुरू नानक सोसाइटी, नारा रोड, जरीपटका, नागपुर