कविता – नारी और भाग्य
मन आशा की मूरत जिसका
आज निराशा छाई कैसे |
दिल में इतना प्यार संजोए
फ़िर ये नफ़रत पाई कैसे |
पल- पल होती रही उपेक्षित
सहती है रूसवाई कैसे |
नारी मन की यह पावनता
है इतनी गहराई कैसे |
है निश्छल मन की अनुरागी
करता तू निठुराई कैसे |
करती सौ सौ जनम निछावर
तू इतना हरजाई कैसे |
दुखित हृदय मन टूटा दरपन
मिटी आज परछाई कैसे |
यह दुनियाँ है एक समुन्दर
नइया पार लगाई कैसे |
लोप हुआ है ग्यान जगत का
ये दुनिया बौराई कैसे |
जग को जीवन देने वाली
खुद इतनी बेचारी कैसे |
नारी जग मे अगर मिटेगी
महकेगी अँगनाई कैसे |
गीत न गूँजेगे फ़िर घर में
बाजेगी शहनाई कैसे |
— मंजूषा श्रीवास्तव
लखनऊ (यू. पी)