सामाजिक

लेख– सड़कों का गड्ढा है, कि भरता ही नहीं देश का

आज हमारे देश में एक ऐसी लकीर खींची जा रही। जिसमें बाहरी डर से हमें डराया जा रहा। आज के दरमियां हम कहें, कि देश के भीतर एक ऐसा आवरण तैयार हो चुका है। जिससे अवाम को लगने लगा है, कि हमें सबसे ज़्यादा खतरा आतंकवाद और नक्सलवाद से है। पर बीते दिनों एक रिपोर्ट आई। वैसे रिपोर्टें आना देश में कोई बड़ी बात नहीं। फ़िर भी यह रिपोर्ट आम नहीं ख़ास है, क्योंकि रिपोर्ट बताती है, कि देश में आतंकवाद और नक्सलवाद से कई गुना अधिक जान तो सड़क के गड्ढे के कारण प्रति वर्ष चला जाता है। अब क्या माने देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा आतंकवाद या गड्ढा युक्त सड़कें हैं। वैसे देखें तो आतंकवाद वाकई देश के लिए बड़ी मुसीबत है। जिससे निपटने का प्रयास पहले होना चाहिए। पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी जेब भरने के लिए दूसरे की जान पर खेलने का जो गंदा खेल आज़ादी के सात दशक से चल रहा। वह भी देश के साथ गद्दारी से कमतर तो नहीं। अवाम के पैसे से देश चलता है। फ़िर भी अगर देश की अवाम को चलने के लिए आज तक अच्छी सड़कें मयस्सर नहीं हो सकी। तो यह लोकतंत्र के साथ भद्दा मज़ाक है।

स्मार्ट और आधुनिकता का दम्भ भरते हमारे देश की सड़कों को देखकर तो कभी-कभी यह एहसास हो सकता है, कि सड़कों में गड्ढे हैं या फ़िर गड्ढों में सड़कें। वैसे राजनीति तो आए दिन एक्सप्रेस- वे का निर्माण करा रही है। पर आम जिंदगी का आएं दिन का तालुकात जिस सड़क से होता है, वह तो किसी छोटे तालाब से कम बरसात के मौसम में लगती नहीं। सर्द के मौसम में जब कोहरा सूर्य की रोशनी को आगोश में लेता है। फिर ये गड्ढे जो राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक तरीका बन गए हैं। ज्यादा विकराल रूप ले लेता है। ऐसे में भारतीय लोकतंत्र के साए में अगर हम कह दे, कि सपने बेचने का काम हो रहा, तो शायद यह अतिशयोक्ति नहीं हो सकता। आज के दौर की राजनीति फुले इसलिए नहीं समाती, क्योंकि उसे यह गुमान है। वह पिछली सरकारों से तीव्र गति से देश में सड़कें निर्मित करवा रहीं है। पर दुर्भाग्य की बात यह है, उसे काम की तेज़ी का एहसास तो हो रहा, पर उसकी गुणवत्ता कैसी होती है। इसका तनिक सा भान नहीं होता। सड़कें किसी भी देश की तरक़्क़ी की पहली सीढ़ी होती हैं। पर हमारे देश के सभी हिस्सों में जो एक बात सामान्य तौर पर नजर आ सकती है। वह है, गड्ढे युक्त सड़कें।

कहते हैं, बेहतर सड़कें देश की अर्थव्यवस्था को आधार प्रदान करती हैं। पर हमारे देश में सड़कें भी चिकनी-चुपड़ी तो सिर्फ़ सियासी कलाकारों के दावे तक ही सीमित रहती हैं। हम बात स्मार्ट सिटी की करते हैं। तो क्या स्मार्ट सिटी और न्यू इंडिया का ख़ाका सड़क पर खुदे पड़े गड्ढे द्वारा खींचा जा रहा। हमारे देश में ऐसा कोई भी चुनाव नहीं होता, फ़िर वह चाहें पंचायत का चुनाव हो। या फ़िर सांसद और विधायक का। सबमें दावा यहीं किया जाता है, कि सड़कें चिकनी बनवाई जाएंगी। पर ऐसा कोई साल नहीं बीतता। जब देश में सड़कों के गड्ढों से होने वाली मौत क्रॉस बॉर्डर फायरिंग और आतंकवाद में हुई मौतों को पीछे न छोड़ती हो। आज हमारे लोकतांत्रिक परिवेश में सरकारी दावे तो इतने खोखले हो गए हैं, कि अगर सियासतदां गंगाजल हाथ में लेकर कसमें खाएं तो भी शायद उनकी बातों पर विश्वास न किया जा सकें। इसके पीछे एक बड़ा कारण है। अब हम उत्तरप्रदेश की रहनुमाई व्यवस्था की ही बात कर लेते हैं। अभी सूबे की सत्ता का झंडाबरदार कमल का फूल है। जिसके चुनावी घोषणा-पत्र के हिस्से में एक एलान यह भी था, कि सूबे की सड़कें गड्ढा मुक्त होंगी। वह भी लगभग 90 दिन के भीतर शत-प्रतिशत। उनके ही खेमें के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या ने पिछले वर्ष यह बयान भी दिया था, कि उत्तरप्रदेश सूबे की लगभग 63 फ़ीसद सड़कें गड्ढा मुक्त हो चुकी है।

तो अब अगर उन्हीं के सरकार के सरकारी आँकड़े बता रहें, कि देश में पिछले वर्ष सबसे अधिक मौतें सड़क के गड्ढायुक्त होने की वजह से हुई। तो यह क्या साबित करता है। पिछले वर्ष सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उत्तरप्रदेश में गड्ढायुक्त सड़क होने के कारण 987 लोगों की जानें गई। जो आतंकवाद से गई लगभग 803 जान से काफ़ी अधिक है। ऐसे में अगर सड़क के गड्ढे में गिरकर देश में पिछले वर्ष हुई मौतों के विस्तृत आंकड़ों पर निगहबानी करें। तो सड़क के गड्ढे में गिरकर जान गंवाने के मामले में हरियाणा और गुजरात क्रमशः उत्तरप्रदेश के बाद दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। वहीं सड़कों के गड्ढे में गिरकर महाराष्ट्र में लगभग 730 लोगों की मौत 2017 में हुई। जो 2016 के मुकाबले में दोगुना है। अगर सड़क के गड्ढे में गिरकर लोगों की मौत का ही हो रहा, तो अभी जुलाई महीने में ही महाराष्ट्र में 6 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। पर महाराष्ट्र के राज्य लोकनिर्माण मंत्री चंद्रकांत पाटिल का मानना है, कि सड़क पर लोगों की मौत सिर्फ़ गड्ढों की वजह से ही नहीं होती। उनकी बात भी एक हद तक जायज़ ठहराई जा सकती है। पर इसका मतलब तो यह कतई नहीं हुआ, कि बेहतर सड़क बनाने की चुनौती ही सरकारें न स्वीकार करें।

रहनुमाई उदासीनता की भी अपनी एक हद होती है। पर जिस हिसाब से देश में गड्ढायुक्त सड़क होने की वज़ह से हर वर्ष होने वाली निर्दोष मौतों का आंकड़ा बढ़ रहा है। वह सरकारों के कार्यों और उनकी लोकतांत्रिक नियत पर ही प्रश्नचिन्ह का निशान खड़ा करती हुई दिखती है। सभी प्रदेशों की सरकारों ने गड्ढायुक्त सड़क की चपेट में आकर हुई मौतों का जो आंकड़ा केंद्र सरकार को सौंपा है। उसके मुताबिक देश में प्रतिवर्ष गड्ढा बनती सड़कों की वजह से मौतें बढ़ रहीं हैं, क्योंकि 2017 में जहां सड़क के गड्ढे ने लगभग 3600 लोगों की ज़िंदगी छीन ली। तो 2016 में यह आंकड़ा 2324 का था। हालिया रिपोर्ट अगर यह कहती है, कि लगभग 10 लोग देश में प्रतिदिन सिर्फ़ सड़क पर गड्ढे होने की वजह से गंवा रहें। फ़िर रहनुमाई व्यवस्था अगर अपने आपको जनोन्मुखी और जनता की हितैषी बताती है। तो यह कतई उचित बात नहीं। अब ऐसे में सवाल तो यहीं, क्या घटिया सड़क निर्माण राष्ट्रद्रोह नहीं? जब छोटी- सी बात पर राष्ट्रदोह का तमगा लगा दिया जाता है। फ़िर इतने बड़े सामाजिक क्षति के जिम्मेदार खुले आकाश में घूमने के लिए क्यों छोड़ दिए जाते हैं। क्या लोकतंत्र में आम जिंदगी की कोई कीमत नहीं? कौन लेगा गड्ढ़ों के कारण सड़कों पर होने वाली मौत की जिम्मेदारी? क्यों कोई सड़क अगर आगामी पांच या तीन वर्ष को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। तो वह इधर निर्माण और उधर उखड़नी चालू हो जाती है? क्या हमारे रहनुमाओं की लोकतंत्र में सिर्फ़ एक ही जिम्मेदारी सिर्फ़ अपना हित देखना रह गया है।

क्यों सड़कों की मरम्मत के नाम पर देश में आए दिन लीपापोती करके अवाम के पैसों को चुना लगाया जाता है। जब उसी सड़क पर देश की अवाम ही सुरक्षित सफ़र नहीं कर पाती? फ़िर क्या मतलब राजनीतिक स्मार्ट शहर आदि का। वह भी शायद राजनीति के झूठ पर तैयार हो रहा। जिससे आम अवाम को कोई फ़ायदा नहीं होगा। सड़कें बेहतर है, कि नहीं इतना शायद हमारे नेताओं को देखने का समय कहाँ। वे तो व्यस्त हैं, अपनी चुनावी दुकान धर्म, मज़हब के नाम पर चमकाने में। मौका मिला, तो इन्हीं प्रतिनिधियों में से कुछ ठेका भी दिला देते हैं अपने किसी ख़ास को सड़क निर्माण का। फ़िर काम शुरू होता है, पैसा गबन करने का सड़क निर्माण आदि के नाम पर। इस काम के अमूमन तीन किरदार होते हैं। पहला ठेकेदार, दूसरा ठेका दिलाने वाले शासन-प्रशासन के लोग और तीसरा जांच एजेंसियां। जो घटिया सड़क को भी बेहतर करार देकर सरकारी पैसों का बन्दर बाट करती हैं। तो ऐसे में कोई अगर जान और माल दोनों से ठगा महसूस करता है। तो वह सड़क पर चलने वाले लोग। जो कभी भी गड्ढे युक्त सड़क की चपेट में आकर अपनी जान गंवा बैठते हैं।

वैसे एक नजरिए से देखा जाएं, तो गड्ढ़े युक्त सड़क की चपेट में आकर होने वाली मौत के जिम्मेदार हम लोग भी हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हम अपनी शक्ति का एहसास लोकतांत्रिक व्यवस्था को कराने से कतराते हैं। साथ में समाज की भी कुछ संवैधानिक उत्तरदायित्व हैं। जिसे वह निभाने से कतराता है। देश की जर्जर सड़क व्यवस्था में सुधार लाना कोई असंभव कार्य नहीं। पर इसके लिए तैयार रहनुमाई व्यवस्था अगर दिखती नहीं। तो नीदरलैंड की भांति देश की अवाम को जन-आंदोलन खड़ा करना चाहिए, क्योंकि गड्ढे की चपेट में कब कौन आएगा। इसकी कोई गारंटी नहीं। कल सड़क के गड्ढ़े की चपेट में आकर किसी और ने जान दी है। तो आने वाले कल में हम ख़ुद उसका शिकार हो सकते हैं। तो अब वक्त की नज़ाकत यहीं कह रही अपनी जान की परवाह हमें ख़ुद करनी होगी। अगर सड़क पर चलने के बाद घर सुरक्षित आना है। ऐसा इसलिए क्योंकि राजनीति तो शायद सुध-बुध खोकर इस विषय मे बैठी है। ऐसा नहीं होता तो 2013 में बनी 3 मिनट में गड्ढा भरने वाली मशीन जिम्मदार लोगों के पास पहुँच चुकी होती। ऐसे में अगर मोटर व्हीकल एक्ट में संशोधन के लिए प्रस्तावित विधेयक में गड्ढों के लिए जिम्मदार व्यक्ति पर मुकदमा दर्ज करने का भी ज़िक्र है। जो वर्षों से संसद में लंबित पड़ा है। इसका मतलब दाल में कुछ काला तो है। जिससे बचने के लिए विधेयक भी झोल में अटका है, और लोग गड्ढों के झोल में फंसकर जिंदगी गंवा रहें। ऐसे में सनद रहें, कि अगर राजनीति सच में बेहतर सामाजिक ढांचा निर्मित करना चाह रही, तो वह अपनी नीति और नियत में बदलाव अवश्य करें। वरना स्थिति जस की तस बनी रहेगी, और सड़क ही गड्ढे हैं, या गड्ढे ही सड़क इसी फ़ेर में सबकुछ उलझा हुआ रहेगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896