कोई आसमां ऊंचा नहीं
आसमां को नापने के लिए सिर्फ पंखों की नहीं हौसले की भी जरूरत होती है. आशाराम के पास पंख तो नहीं ही थे, हां लगन और हौसले को ही उसने पंखों का पर्याय बना लिया है. अभाव में जीवन व्यतीत करने वाले आशाराम ने एम्स के एंट्रेंस एग्जाम को पहले ही प्रयास में पास करके साबित कर दिया कि गरीबी सफलता में आड़े नहीं आ सकती.
बेटे ने जब अपनी इस बड़ी सफलता का समाचार दिया, तो सहज भाव से पिता ने कहा- ‘बेटा तू तो हमेशा ही पास होता है तो इस बार कौन सी नई बात है!’ अब सरल और शिक्षा से अनजान कूड़ा उठाने वाले पिता रंजीत को आशाराम कैसे समझाए! आशाराम अपने पिता के साथ एमपी के देवास जिले के एक छोटे से गांव विजयगंज मंडी में रहता है. ये लोग एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रहते हैं और रंजीत कूड़ा बीनकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाते हैं. 18 वर्षीय आशाराम ने पिता को समझाने एक कोशिश की-
‘बाबा यह बहुत बड़ा इम्तिहान था और यह स्कूल भी बहुत बड़ा है. अब मैं अपने गांव के कल्लू डाक्टर की तरह एक डॉक्टर बन जाऊंगा.’ इस कोशिश में वह कामयाब हो गया. आशाराम का ऑल इंडिया रैंक में 707वां स्थान है और ओबीसी कैटिगरी में उसे 141 वीं जगह मिली है.
आशाराम की आशा की उड़ान को पंख लगाए थे पुणे की दक्षिणा फाउंडेशन ने, जिसने आशाराम को स्कॉलरशिप के लिए चुना था. आशाराम की चाहत है- ‘मैं चाहता हूं कि एमबीबीएस की पढ़ाई में हर साल मुझे गोल्ड मेडल मिले मेरे गांव ने जो मुझे इतना कुछ दिया है मुझे वह लौटाना भी है. यहां एक भी अच्छा डॉक्टर नहीं है.’
मन में लगन हो और पंखों को उड़ान मिल जाए तो कोई आसमां ऊंचा नहीं. आशाराम ने किताबों के 8 हजार रुपये जुटा लिए हैं, अब एम्स के मैस की फीस 36 हजार रुपये जुटाने का प्रयास जारी है.
आशाराम अपने पिता के साथ एमपी के देवास जिले के एक छोटे से गांव विजयगंज मंडी में रहता है। ये लोग एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रहते हैं और रंजीत कूड़ा बीनकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाते हैं। 18 वर्षीय आशाराम ने जोधपुर-एम्स में अपनी सीट पक्की की है। आशाराम ने बताया, ‘मेरे पिता को अभी इस बारे में कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। मुझे उन्हें समझाने में अभी कुछ वक्त लगेगा।’