गीत
श्रम पावक में तपा स्वयं को ,मूल्यवान तू स्वर्ण बनेगा !
आभूषण तो मूल्यहीन ,कंकड़ पत्थर भी बन जाते हैं ।
तीक्ष्ण अम्ल से धुला गया वो,बारम्बार प्रहार सहे हैं।
कंचन ने निज कोमल तन पर वैश्वानर के वार सहे हैं।
कई बार वो कसा गया है,कितनी नजरों से गुजरा है।
तब जाकर के सुन पाया वो,हाँ सोना तू बहुत खरा है!
वहीं खरा सोना बनते हैं,जो इतना कुछ सह पाते हैं ।
आभूषण तो मूल्यहीन……………………………
देवांगन स्थापित प्रतिमा,देखो कितनी पावन लगती।
कभी एक पाषाणखंड थी,अब अतीव मनभावन लगती ।
पत्थर से प्रतिमा बनने में उसने अनगिन कष्ट उठाये ।
छेनी और हथौड़े झेले ,अनगिन घाव बदन पर खाये ।
जो पीड़ा सहकर बनते हैं,वो जग में पूजे जाते हैं ।
आभूषण तो मूल्यहीन…………………………
झुंडों मे रहते हैं जो मृग ,क्या बलशाली बन जाते हैं ?
या समूह के कोलाहल से, हिंसक पशु क्या डर जाते हैं ?
भले अकेला सिंह रहे पर ,वह वननायक कहलाता है ।
यह जगती की रीति यहाँ पर उद्भट ही पूजा जाता है ।
कायर मरते मौत श्वान की,सिंह वीरगति को पाते हैं ।
आभूषण तो मूल्यहीन………………………….
जो मन का कायर होगा ,वह स्वयं कुछ नही कर पायेगा।
अति लाघव बाधाओं मे भी संबल संबल चिल्लायेगा ।
जब ऐसे मनभीरु जनों को जिम्मेदारी दी जायेगी ।
एक कंपन में सकल व्यवस्था तिनके जैसी ढह जायेगी ।
मन पंगु बैठ कर रोते हैं,तन पंगु शिखर चढ़ जाते हैं ।
आभूषण तो मूल्यहीन…………………………..
———— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी