कविता

“दुर्मिल सवैया”

छंद- दुर्मिल सवैया (वर्णिक ) शिल्प – आठ सगण, सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा सलगा , 112 112 112 112 112 112 112 112

हिलती डुलती चलती नवका, ठहरे विच में डरि जा जियरा।

भरि के असवार खुले रसरी, पतवार रखे जल का भँवरा ।।

अरमान लिए सिमटी गठरी, जब शोर मचा हंवुका उभरा।

ततकाल घुमाय दियो परदा, परचा लहराय दियो चतुरा।।

मन झूम गए पुनि नाव चली, चित व्याकुल हो हरषाय गयो।

हर हाथ मिले तकि पास सखी, नयना झरना बरसाय गयो।।

जब ओट लगी फिर नाव हिली, रुक पाँव बढ़े किनराय गयो।

जग जीवन जान महान मिला, पर जोखम जन बिसराय गयो।।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ