लघुकथा

“पत्र लेखन” प्रिय प्राणेश्वरी,

अत्र कुशलम, तत्रास्तु…….

जमाना बीत गया, तुम्हें विदित ही है पढ़ना- लिखना तुम्हारी जुल्फों में ही बिखर गया व मंजिल तुम्हारी वह खिड़की थी जिसे तुम खुद समय-समय पर खोला करती थी और बिना परवाह किए उसे बंद करके परिंदे की तरह उड़ गई। वापस न आई न तुम्हारा कोई पता ही मिला कि तुम्हें पत्र ही लिख सकूँ। हाँ, मुझे एक राह जरूर मिल गई, हर दिन एक पत्र लिखता हूँ और हवा में यह मानकर उड़ा देता हूँ कि तुम हवा होकर गई हो तो यह भी वहीं जाएगा जिसे पढ़कर तुम लौट आओगी। अब पत्र लिखने की रश्म बंद हो गई है। लोग बहुत आगे निकल गए हैं। प्रेम, रिश्ता, मित्र, भाई-वंधु, सगा- संबंधी सबके सब आभासी हो गए हैं। बिना मिले ही आपसी भावनाएं तृप्त हो जाती हैं। तस्वीरों के माध्यम से पुष्प-गुच्छ, गजरा और न जाने किसका-किसका रसास्वादन कर लेते हैं। देखो, छप्पन तरह के स्वादिष्ट व्यंजन, रस टपकाते रसगुल्ले, शेरो-शायरी, कविता-कहानी, रमनीय स्थल, देव स्थल इत्यादि के साथ ही साथ इतिहास, भूगोल अर्थ, राजनीति, समाज, नागरिक शास्त्र सब कुछ फिंगर टच हो गया, जिसको छूओ वहीं खुलकर उछलने लगता है। अब यह मत पुछना कि क्या नहीं मिलता। समय की भी पाबंदी नहीं है, जब समय मिले अपने अनुसार पन्ने को टच करो और संतुष्ट हो लो।

सुनो, हमारी मुलाक़ात जिस बाग में हुई थी उसी के एक कोने में मुझे एक फूले हुये दरख्त की छांव मिल गई जिसे किसी ने जानकर तो नहीं उगाया पर उसके अपनत्व से लगा कि यह जरूर किसी की बेपनाह मुहब्बत की निशानी है जो आज मेरे ही तरह गुमराह है। तुम नहीं मानोगी, रोज उसके फूलों से एक गजरा बनाकर, उसकी ही डाली में पहना देता हूँ और तुम्हें स्पर्श कर लेता हूँ। वहीं बैठकर जमीन पर पत्र लिख रहा हूँ कि शायद यह तुम्हें मिल जाय और पत्र लेखन का शीलसिला शुरू हो जाय।

तुम्हारा अपना, बे- नाम चकोर

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ