पाषाण-मनुज
अमित अमीत अधूत आज क्यों ,
मनमानी कर उतराये हैं ?
समीकरण क्यों बदल रहे हैं,
समदर्शी क्यों घबराये हैं ?
अब कैसी है यह दुरभिसंधि,
दुरुत्साहन यह कैसा है ?
दुराग्रही के आगे नत क्यों,
सुसंचालन यह कैसा है ?
सैनिक हैं वसुधा के लथपथ,
आहत माँ संत्रस्त हुई है ।
छलनी है छाती यह छ्ल से,
रोने को अभिशप्त हुई है ।।
कहे वेदना किससे उर की,
कुछ पूत कपूत हुए दुर्बल ।
प्रीति सुरीति नीति ठुकराकर,
लोभी पापी मन से निर्बल ।।
पाषाण हुआ मानव – अन्तस,
भाव मृत्यु को प्राप्त हुए हैं।
क्षुधा जीत की रक्त चूसती,
क्षुब्ध सदा ही आप्त हुए हैं।।
आस विकल हो गहन तिमिर में,
सुप्रशस्त पन्थ निर्मित करती।
पर घन अभिमानी गहराए,
मनोदशा दिशा भ्रमित करती ।।
त्रास ह्रास उपहास आज क्या ,
गौरव गाथा बन उभरेंगें ?
स्वसुख हेतु सम्बन्ध निगलते,
कुछ स्वार्थ- हृदय क्या सुधरेगें ?
बलि देने वाले अपनों की ,
क्या बलि छ्ल की दे पायेगे ?
मीठा – मीठा बोल बोलकर,
कब पलट घाव कर जायेंगें ?
रामराज्य की वह बातें क्या ,
वसुधैव कुटुम्ब की सुमहिमा ?
केवल कल्पित उन्मादी है ,
आडम्बर है इक क्या गरिमा ?
यदि नहीं कल्पना है केवल ,
अरि, कलियुग के संहार करो।
हे केशव ! कल्कि रूप में आ,
अब अनघ अखिल संसार करो।।
अचला अम्बु अनिल अनल संग,
आकाश शून्य में खोया है।
पंचतत्व से प्राणवान पर,
मानव पत्थर बन सोया है।।
— शुभा शुक्ला मिश्रा ‘अधर’